हैदराबाद की घटना

हैदराबाद की घटना
यह घटना सन १९९५ के मई महीने की है। मैं हैदराबाद अपने मामा जी के पास आया था। मेरे मामा जी सी.आर.पी.एफ. में थे और यहाँ तैनात थे। दो साल हो चुके थे और उनसे मिलना नहीं हो पा रहा था, तो मैं हैदराबाद पहुँच गया। उन्होंने अफज़लगंज में एक मकान किराए पर लिया हुआ था, मकान नया तो नहीं था, हाँ काम चलाऊ तो था ही।
मैं हैदराबाद घूमता रहा, शाम को घर आता, खाना खाता और सो जाता था।
एक दिन मैंने सोचा कि क्यों न यहाँ के सबसे बड़े मस्जिद को देखा जाए! तो मैं दिन में करीब १ बजे मस्जिद घूमने चला गया। मस्जिद सच में शानदार और ऐतिहासिक महत्व की है! उसमें एक बड़ा सा अहाता है और वहाँ एक बड़ा सा तालाब भी है, जिसकी दीवारें पत्थर से बनी हैं और उसमें मछलियाँ पाली हुई हैं।
मैं उस दिन मस्जिद घूमा और फिर बाजार चला गया। अगले दिन न जाने क्यों मेरे मन में दुबारा वहाँ जाने की इच्छा हुई, तो मैं फिर वहाँ चला गया। दरअसल, वहाँ शांति का माहौल है, मन को शांति मिलती है। मैं फिर से उस तालाब के पास गया और मछलियाँ देखने लगा! वहाँ काफी लोग थे, हर कोई अपनी-अपनी बातों में व्यस्त था। फिर मैं बाहर अहाते में आकर एक पत्थर पर बैठ गया।
तभी मैंने देखा कि एक छोटी सी लड़की वहाँ आई और आकर किसी को आवाज देने लगी। मैंने सोचा शायद घूमने वाले लोग में से ही कोई होगी। उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी, लेकिन अच्छा परिवार से संबंधित लग रही थी। फिर अचानक वह मेरी तरफ मुड़ी और बोली, "क्या आपने यहाँ किसी छोटे बच्चे को देखा है, जो काले रंग के कुर्ते में है और सिर पर सफेद रंग की टोपी लगाए हुए है?"
"नहीं, मैंने तो नहीं देखा," मैंने कहा।
"यह रोज़ ही ऐसा करता है, खाने के वक्त हमेशा ढूंढ़ना पड़ता है इसे, न जाने कहाँ गया अब यह?" वह चारों तरफ देख कर बोली।
"तुम यहाँ रहती हो?" मैंने सवाल किया।
"हाँ, पास में रहती हूँ। यहाँ मेरे अबू की दुकान है, बचों के कपड़े बेचते हैं," उसने तपाक से जवाब दिया।
"पढ़ाई करती हो?" मैंने पूछा।
"हाँ, तीसरी कक्षा में हूँ," उसने जवाब दिया।
"अच्छा है, पढ़ाई करनी चाहिए, तुम्हारा नाम क्या है?" मैंने फिर सवाल किया।
"नसरीन नाम है मेरा, और आपका?" उसने भी सवाल किया।
मैंने अपना नाम बता दिया, वह झिझक नहीं रही थी, ऐसे बात कर रही थी जैसे वह वहाँ की हर चीज से वाकिफ हो।
"आप कहाँ से आए हो? यहाँ के तो नहीं लगते?" उसने पूछा।
"मैं दिल्ली से आया हूँ," मैंने जवाब दिया।
"मैंने कल भी आपको यहाँ देखा था, आप कल भी आए थे न यहाँ?" उसने पूछा।
"हाँ, मैं कल भी आया था यहाँ, लेकिन मैं कल यहाँ नहीं बैठा था," मैंने कहा।
"कल आप तालाब के पास बैठे थे, मैंने देखा था," वह बोली।
"हाँ," मैंने कहा।
"अच्छा, मैं अपने भाई को ढूंढ़ रही हूँ, अब एक बात तो बताओ, क्या आपने सारा हैदराबाद घूमा लिया?" उसने फिर सवाल किया।
"हाँ, लगभग सारा घूम लिया, यह मस्जिद रह गई थी, तो सोचा इसे भी देख लिया जाए, इसे यूँ छोड़ दिया जाए!" मैंने हंसते हुए जवाब दिया।
"आपको इस मस्जिद की खासियत मालूम है?" उसने जोर देकर पूछा।
"नहीं, मुझे नहीं मालूम, वैसे क्या खासियत है इस मस्जिद में? मुझे तो यह आम मस्जिद की तरह ही लग रही है, हाँ, बड़ी ज़रूर है!" मैंने मस्जिद की तरफ मुंह करके कहा।
"इस मस्जिद के पीछे की दीवार में एक पत्थर में एक खास निशान है, लेकिन वह हर किसी को दिखाई नहीं देता। क्या आपने वह देखा?" उसने पूछा।
"नहीं, मैंने तो नहीं देखा और न ही मुझे किसी ने इसके बारे में बताया," मैंने कहा।
"चलिए, मैं दिखाती हूँ आपको। लोग यहाँ गाइड को पैसे देते हैं, ताकि वह उन्हें वह पत्थर दिखा सके!" उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
"लेकिन, तुम तो अपने भाई को ढूंढ रही हो, न? तुम उसे ढूंढ लो!" मैंने कहा।
"वो जाएगा कहाँ, यही होगा या फिर अबू की दुकान पर चला गया होगा। चलो, मैं दिखाती हूँ," उसने कहा।
मेरे मन में ख्याल आया कि शायद यह लड़की ऐसे ही मेरे जैसे लोगों को वह पत्थर दिखा कर कुछ पैसे बना लेती होगी, खैर, मैं उठकर खड़ा हो गया और उसके पीछे चलने लगा। वहाँ उसने मुझे वह पत्थर दिखा दिया और उसके बारे में बात करती रही। फिर हम दोनों उसी जगह पहुँच गए, जहाँ वह पहली बार मुझसे मिली थी। मैंने अपनी जेब से १० रुपये निकाले और उसे देने लगा, लेकिन उसने मना कर दिया और हंसते हुए बोली, "आप ही रख लो, नारियल की मिठाई खा लेना!"
मैं भी हंस पड़ा, लेकिन उसने पैसे नहीं लिए, यह मेरे लिए थोड़ी चौंकाने वाली बात थी।
"अच्छा, अब मैं चलती हूँ, आप कल फिर आओगे यहाँ? और यहाँ हैदराबाद में कब तक रहोगे?" उसने पूछा।
"कल मैं आऊँगा या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन आज १५ तारीख है और १८ को मुझे वापस जाना है," मैंने कहा।
"यानि कि आप १८ तारीख को वापस जायेंगे?" उसने कहा।
"हाँ," मैंने कहा।
"अच्छा, अब मैं चलती हूँ, आप कल आओगे तो बात करेंगे," उसने हँसते हुए कहा। मैं उसका जवाब नहीं दे सका और मेरे देखते ही देखते वह वहाँ से चली गई और लोगों की भीड़ में गुम हो गई। मैं करीब आधे घंटे बाद वहाँ से वापस घर की ओर चल दिया और बिस्तर पर लेटते ही मैं उसी बात में उलझा रहा, और नींद आ गई।
मैं तकरीबन २ बजे वहाँ पहुँचा, जहाँ मेरी मुलाकात नसरीन से पहली बार हुई थी। मैं वहाँ बैठा और पानी पीने लगा। पानी पीते हुए मुझे उसकी आवाज सुनाई दी,
"आ गए आप!"
"हाँ, मैं आ गया, और सच में तुम्हें ही ढूंढ रहा था!" मैंने बेज़िजक जवाब दिया।
"मैं जानती थी!" उसने भी तपाक से जवाब दिया।
"यह लो, आपने तो ली नहीं थी, तो मैं ही लेकर आ गई आपके लिए यह नारियल की मिठाई!" वह मिठाई का पैकेट खोलते हुए बोली।
मुझे थोड़ी हैरानी हुई, कि नसरीन को कैसे पता चला कि मैंने मिठाई नहीं खाई थी?
खैर, मैंने अपने विचार को दरकिनार किया और मिठाई का एक टुकड़ा मुँह में रख लिया, मिठाई वाकई में लाजवाब थी!
"यह कौन सी दुकान से लाई हो नसरीन तुम? काफ़ी बढ़िया मिठाई है!" मैंने एक और टुकड़ा उठाते हुए पूछा।
"यह पास में कई दुकानें हैं, कहीं से भी मिल जाएगी," उसने मुस्कराते हुए कहा।
"अच्छा नसरीन, ज़रा अपने घर के बारे में बताओ, कौन-कौन है घर में तुम्हारे?" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा।
"मेरे अबू हैं, अमी हैं, बाबा हैं, मैं और मेरा छोटा भाई अतर हैं," उसने जवाब दिया।
"और घर कहाँ है तुम्हारा?" मैंने पूछा।
"यह पास में ही है, मेरे घर चलोगे?"
"अरे नहीं! मैं तो सिर्फ पूछ रहा था!" मैंने हँसते हुए जवाब दिया।
और उस दिन करीब २ घंटे तक हम ऐसे ही बात करते रहे, वह मेरे बारे में पूछती और मैं उसके बारे में, वह दिल्ली के बारे में पूछती और मैं हैदराबाद के बारे में! ऐसे ही वक्त गुजर गया। मुझे यह नसरीन बहुत अच्छी लगने लगी थी, बेहद मासूम, यारी और चुलबुली लड़की सी।
फिर मैं करीब ६ बजे वापस अपने मामा जी के घर आ गया, ८ बजे के करीब मामा जी आए और उन्होंने मुझे अगले दिन उनके साथ शिमला जाने के लिए कहा। मैं जाना तो नहीं चाहता था, लेकिन मना नहीं कर सका।
अगले दिन मुझे शिमला जाना पड़ा, काफी दूर था शिमला, २ घंटे से ज्यादा का वक्त लग गया था। वहाँ मैं मामा जी के दोस्तों से मिला, खाया-पीया और इसी में २ बज गए।
मैं घर पे ४ बजे के करीब पहुँचा, लेकिन मन नहीं माना और फिर से मस्जिद की ओर बढ़ने लगा। साढ़े ४ बज चुके थे, मैं फिर वहीँ जाकर बैठ गया जहाँ २ दिन से मैं और नसरीन मिल रहे थे, काफी वक्त गुजर गया लेकिन नसरीन का कोई पता नहीं था।
मैं अपनी नज़रें चारों ओर दौड़ा रहा था, कि कहीं नसरीन मुझे दिख जाए, और अचानक वह मुझे दिखाई दे गई! वह मेरी तरफ बढ़ रही थी, मुझे बेहद खुशी हुई!
"आज कहाँ थे सारा दिन?" उसने मुझसे कड़क लहजे में पूछा, और सच कहता हूँ, मुझे उसका यह लहजा बहुत प्यारा और बहुत करीबी लगा।
"हाँ, मैं तुम्हें कल नहीं बता सका कि मुझे कहाँ जाना था अपने मामा जी के साथ," मैंने थोड़ा धीमे लहजे में उससे कहा।
"कोई बात नहीं, चलो आप आये तो!" उसने मजाक के लहजे में यह बात कही और मैंने भी हंसी में सिर हिलाया।
"अच्छा, यह लो, यह एक छोटी सी किताब है, इसे रख लो, ज़िन्दगी में काम आएगी!" उसने वह मुझे देते हुए कहा।
"लेकिन यह तो उर्दू में है?" मैंने सवाल किया।
"आप उर्दू जानते हो, मैं जानती हूँ अच्छी तरह से!" उसने कहा।
"तुमको कैसे पता कि मैं उर्दू जानता हूँ?" मैंने हैरानी से पूछा।
"आपके बोलने के लहजे से मैंने समझ लिया कि आपको उर्दू आती है," उसने ईमानदारी से यह बात कही।
यह बात तो मुझे पता थी कि नसरीन एक ज़हीन लड़की है और दूसरों से अलग है।
"कल मैं सुबह जा रहा हूँ नसरीन," मैंने कहा।
"हाँ, मालूम है," उसने आँखें नीचे करके कहा।
"पता नहीं कभी दोबारा यहाँ आ भी पाऊँगा या नहीं, तुम एक काम करो, मुझे अपने घर का पता दे दो, मैं अगर कभी आया तो तुमसे ज़रूर मिलूँगा," मैंने हिचकते हुए कहा।
वह मुस्कराई, लेकिन कुछ नहीं कहा, उसने मेरी जेब से पेन निकाला और किताब के पीछे अपना पता लिख दिया, फिर वहाँ से चली गई। यह मेरी उससे आखिरी मुलाकात थी, मुझे अजीब सा महसूस हो रहा था।
३ दिनों में एक अजीब सा रिश्ता बन गया था मेरा उससे।
मैं अहाते से बाहर आया और घर की ओर चल दिया। वह किताब मैंने अपनी जेब में रख ली थी, छोटी सी कोई १०० पृष्ठ की किताब होगी वह।
रात को घर जाकर सुबह हैदराबाद छोड़ने की तैयारी करने लगा।
और वक्त गुजरता गया अपनी रफ्तार से। मुझे एक बार फिर से हैदराबाद जाने का मौका मिला। यह बात सन १९९७ के दिसंबर महीने की है। खैर, मैं वहाँ पहुँचा मामा जी के यहाँ और अगले दिन उनकी मोटरसाइकिल उठाई और नसरीन के दिए हुए पते की तरफ चल पड़ा!
मैं मस्जिद के पास एक शख्स से रास्ता पूछा और उसके बताए हुए रास्ते पे चल पड़ा, लेकिन लगातार चलने के बाद भी वह जगह नहीं मिली। कोई कहता इधर, कोई कहता उधर, जैसा जो कहते मैं वही चलता गया, लेकिन पता नहीं चला!
मैंने एक बुज़ुर्ग आदमी से पूछा कि मुझे यहाँ जाना है, बुज़ुर्ग आदमी ने कहा कि इस नाम की जगह तो यहाँ कोई नहीं है, हाँ एक गाँव है इस नाम का, वहाँ चले जाओ। मैंने वैसा ही किया और उस गाँव की ओर चल पड़ा। शहर से काफ़ी बाहर था वह गाँव, मैं वहाँ पहुँचा तो एक चाय वाले से पूछा कि मुझे इस जगह जाना है, मैंने उसे परचा दिखाया।
"नाम बताओ जिससे मिलना है?" उसने पूछा।
मैंने नाम बताया।
"इस नाम का तो कोई आदमी नहीं रहता यहाँ? आप एक काम करो, सामने मस्जिद है, वहाँ मालूम कर लो!" उसने इशारा करते हुए कहा।
मैं वहीं चल पड़ा, वहाँ ४-५ बुज़ुर्ग लोग बैठे हुए थे, मैंने जब उनसे पूछा तो एक आदमी आगे आया और बोला, "यह पता आपको किसने दिया?"
मैंने सब-कुछ बता दिया, वह हैरान हो गया और मुझे अपने साथ आने को कहा, मैं चल पड़ा।
उसने एक टूटा-फूटा खंडहर जैसा घर दिखाया और बोला, "इस नाम का आदमी आज से ४०-४५ साल पहले यहाँ रहता था, उसकी बीवी, बाप और एक लड़की थी, नसरीन और एक लड़का था। एक रात बारिश में छत गिर गई और पूरा परिवार मलबे में दबकर मर गया।"
मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं, खून जैसे जम गया हो, हाथ-पाँव ठंडे हो गए। मैंने किसी तरह से खुद को संभाला और वापस चल पड़ा। रास्ते में फिर से वह मस्जिद पड़ी, मैंने मोटरसाइकल बाहर लगाई और उसी जगह जाकर बैठ गया, जहाँ मेरी मुलाकात नसरीन से हुई थी। मैं ढूंढता रहा, नाम लेता रहा, लेकिन... नसरीन नहीं आई।

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