कानपुर की एक घटना

 कानपुर की एक घटना

यह घटना वर्ष २००३ के जून महीने की है। मुझे महाशि पीठ से काम या से आये हुए कुछ दिन हो चुके थे। एक दिन मेरे पास मेरे किसी परिचित का फोन आया। उन्होंने बताया कि रमेश जी के बारे में जो कि कानपुर देहात के किसी सरकारी बैंक में अधिकारी थे, वे मेरे पास भेजे जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि दो दिन बाद वह रमेश जी को मेरे पास भेज रहे हैं, क्योंकि कोई गंभीर समस्या है, जिसका समाधान आवश्यक है। मैंने कहा, "ठीक है, आप भेज दीजिए।" इतना कहकर उन्होंने फोन काट दिया।

ठीक दो दिन बाद रमेश जी आ गए और उनके साथ उनकी पत्नी जी भी आई थीं। मैंने उनसे उनकी समस्या के बारे में पूछा, इससे पहले कि रमेश जी कुछ बोलते, उनकी पत्नी फूट-फूट कर रोने लगीं। रमेश जी ने उन्हें चुप कराया, और मैं समझ गया कि समस्या गंभीर है। मैंने उन्हें हिम्मत दी और उनसे उनकी समस्या पूछी।

"बताइए, क्या बात है?" मैंने पूछा।

रमेश जी ने कहना शुरू किया, "हमारे दो बच्चे हैं, एक बड़ी लड़की, शिवानी, जो अब कॉलेज में है और १२वीं कक्षा की छात्रा है, और एक लड़का है, हिमांशु, जो ११वीं कक्षा में पढ़ रहा है। मैं कानपुर देहात के एक सरकारी बैंक में उप-बंधक हूँ। मेरी पत्नी जी कानपुर देहात के एक सरकारी विद्यालय में हिंदी शिक्षिका हैं। आज से करीब ४ महीने पहले सब कुछ सही चल रहा था, सुख-शांति थी, लेकिन उसके बाद घर में एक विचित्र समस्या शुरू हो गई।"

रमेश जी ने धीमे स्वर में यह बात कही।

"कैसी विचित्र समस्या?" मैंने पूछा।

"यह कोई १२ फरवरी की बात है। हम लोग रात का खाना खाकर सो चुके थे। मुझे अचानक ही मेरी बेटी के कमरे से कुछ गिरने की आवाज़ आई। मेरी नींद खुल गई। मैंने सोचा कि शायद शिवानी से ही कुछ गिर गया होगा। मैंने घड़ी पर नज़र डाली, तो रात के २ बजे थे। मैं फिर से लेटने ही वाला था कि फिर वही आवाज़ आई, लेकिन इस बार आवाज़ तेज़ थी। मेरी पत्नी की आँख भी खुल गई, और मेरा बेटा भी अपने कमरे से बाहर आ गया। मेरे बेटे ने शिवानी को आवाज़ लगाई, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। मैंने दरवाजे पर जाकर खटखटाया। दो बार, तीन बार, चार बार। लेकिन न तो दरवाजा खुला, और न ही शिवानी की आवाज़ आई। मन में अजीब से ख्याल आने लगे, कि न जाने क्या बात है। जब बार-बार खटखटाने पर भी दरवाजा नहीं खुला तो मैंने और मेरे बेटे ने दरवाजा तोड़ दिया। हम कमरे में घुसे, वहां अंधेरा था। मैंने लाइट जलाई तो देखा, शिवानी एक तकिए पर बैठी थी और कुछ बड़बड़ा रही थी। जैसे ही मैंने उसे छुआ, उसने मुझे धक्का दे कर मारा। मेरे बेटे ने जैसे ही उसे पकड़ा, तो उसने उसे भी लात मारकर गिरा दिया। अब वह जो बड़बड़ा रही थी, वह अरबी या उर्दू भाषा में थी। न तो शिवानी उर्दू पढ़ती थी, न ही कभी उसने उस भाषा का उपयोग किया था, और हमारे परिवार में भी कोई नहीं जानता था। भय के कारण मेरे पांव तले जमीन खिसक गई।"

रमेश जी ने यह कहकर दो घूंट पानी पिया और मुंह से अपना चेहरा पोंछा।

रमेश जी ने फिर कहना शुरू किया, "वह हंसी जा रही थी, खिलखिला कर, बुरी तरह। मैं लगातार उसे 'शिवानी, मेरी बेटी, शिवानी मेरी बेटी' कहे जा रहा था। अब हम बुरी तरह से घबराए हुए थे। अचानक ही वह खड़ी हुई और चिल्ला कर बोली, 'निकल जाओ यहाँ से, मैं तुम्हारी शिवानी नहीं हूँ!' और फिर हंसने लगी। मेरी पत्नी से यह देखा नहीं गया और वह रोते हुए उसके पास गई। शिवानी ने मेरी पत्नी को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर बिस्तर से उतर गई। उतरने के बाद उसने अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा, 'तू कौन है?' मेरी पत्नी ने रोते हुए उसके सर पर हाथ रखा, तो वह कुछ नहीं बोली लेकिन ऐसे देखती रही जैसे पहली बार देखा हो। हम बुरी तरह से घबराए हुए थे। मैंने अपने बेटे को डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा, वह डॉक्टर को लेने चला गया। शिवानी फिर से बिस्तर पर चढ़ गई और फिर से आँखें बंद करके बड़बड़ाने लगी। मेरी पत्नी और मैं एकटक उसे देख रहे थे। २० मिनट बीत चुके थे, तभी मेरा बेटा डॉक्टर को लेकर आ गया। जैसे ही डॉक्टर आगे बढ़ा, शिवानी ने चुटकी बजाते हुए उसे वहाँ से जाने को कहा, यहाँ तक कि अपशब्द भी बोले। डॉक्टर ने अपना बैग उठाते हुए कहा कि शिवानी को मानसिक इलाज की जरूरत है। 'आप इसे मानसिक चिकित्सालय ले जाइए, वहीं इसका इलाज हो सकेगा,' और डॉक्टर जैसे आया था वैसे ही चला गया। अब यह और घबराने वाली बात थी। तभी शिवानी खड़ी होते हुए बोली, 'अब निकल जाओ यहाँ से, मुझे गुस्सा न दिलाओ। अगर गुस्सा आ गया तो घर में तीन लाशें बिछा दूँगी!' मुझे हैरानी हुई, 'बिछा दूँगी?' यह अजीब बात थी, उसने कभी भी इस तरह की बात नहीं की थी। वह चिल्लाई और बोली, 'अब जाते हो या मैं निकाल लूँ तुमको?' तब हम तीनों वहाँ से निकलकर अपने कमरे में आ गए। अब तक ४ बज चुके थे। रात आँख से गायब हो गई थी। शिवानी के कमरे से अभी भी जोर-जोर से हंसने की आवाज़ आ रही थी। हमारी हिम्मत नहीं हुई कि हम उसके कमरे में जाएं।"

ऐसा कहते हुए रमेश जी ने अपनी जेब से मुझे शिवानी का फोटो दिखाया।

शिवानी का फोटो देखने पर मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह लड़की किसी अत्यंत-आधुनिक विचारधारा से ओत-प्रोत हो। वह एक साधारण सी लड़की थी। हाँ, नैन-नक्श काफ़ी अच्छे थे, शरीर भी मज़बूत किस्म का लग रहा था। पढ़ाई में भी वह मेधावी थी—यह मुझे रमेश जी की पत्नी ने बताया। मैंने एक बार फिर से फोटो देखा और वापस रमेश जी को दे दिया। उन्होंने वह फोटो अपनी जेब में रख लिया।

"क्या आपने उसको किसी ऊपरी इलाज करने वाले के पास दिखाया?" मैंने पूछा।

अबकी बार शिवानी की माता जी ने कहना शुरू किया,
"हाँ, हम उसको हर उस जगह ले गए, जहां हमें किसी ने बताया। हाँ, एक बात ग़ौर करने की है—जब भी हम उसे कहीं ले जाते थे, तो वह सामान्य हो जाती थी और खुश रहती थी। परंतु कभी-कभार रास्ते में कहती थी कि 'मुझे कहीं भी ले जाओ, कोई कुछ नहीं कर सकेगा।' और ऐसा होता भी था! कई ओझाओं ने तो मना ही कर दिया। कई तांत्रिक जो घर पर आए, वे सर पर पाँव रखकर भाग गए। फिर एक दिन एक मौलवी साहब आए। शिवानी ने उनको अपने हाथ से पानी पिलाया। मौलवी साहब ने कहा कि शिवानी को और उनको अकेला छोड़ दिया जाए। करीब एक घंटे के बाद मौलवी साहब वापस हमारे पास आए। उन्होंने जो बताया, उसे सुनकर हमारे होश उड़ गए। उन्होंने कहा कि शिवानी पर एक जिन्न आशिक़ है, और वह जिन्न बेहद ज़िद्दी है। वह कहता है कि वह शिवानी को कभी नहीं छोड़ेगा, चाहे कुछ भी कर लो। उन्होंने कहा कि एक बार हम उसे अजमेर-शरीफ ले जाएँ, हो सकता है कि शिवानी वहाँ बिल्कुल ठीक हो जाए। अब मौलवी साहब इसमें कुछ नहीं कर सकते।"
रमेश जी की पत्नी ने अपनी साड़ी से अपने आँसू पोंछते हुए यह बात कही।

"तो क्या आप उसे अजमेर-शरीफ लेके गए?" मैंने रमेश जी से पूछा।

"हाँ साहब, हम ले गए थे उसे, पर कुछ नहीं हुआ। बल्कि अब शिवानी का मिज़ाज और कड़वा हो गया था। वह बात-बात पर गाली-गलौज करने लगी थी। हाँ, अब सजने-धजने ज्यादा लगी थी, दिन में चार बार नहाने लगी थी। मुझे तो लगता है कि अब वह हमारी बिटिया रही ही नहीं, कोई अनजान लड़की है हमारे घर में।" अपनी जेब से रुमाल निकालते हुए रमेश जी ने कहा।

मैंने भी अपनी गर्दन हिलाई और इस समस्या पर विचार करने लगा।

"क्या शिवानी अभी घर पर ही है?" मैंने सवाल किया।

"जी हाँ, वह घर पर ही है। मेरी बहन आई हुई है घर पे, तभी हम यहाँ आए हैं आपके पास।" रमेश जी बोले।

"अच्छा," मैंने कहा।
"ठीक है, रमेश जी। मैं शिवानी को आपके घर पर ही जाकर देखूँगा। आज सोमवार है, मैं इस शुक्रवार को कानपुर रवाना हो जाऊँगा। आप अपना पता और फोन नंबर लिखकर दे दीजिए। सब कुछ ठीक हो जाएगा, आप चिंता न करें!" मैंने रमेश जी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

रमेश जी की पत्नी के आँसू फिर से निकल आए थे। वह कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन लफ्ज़ नहीं निकल पाए। मैं एक माँ-बाप का दर्द समझ सकता था।

रमेश जी ने एक कागज़ पर अपना फोन नंबर और पता लिखकर दे दिया और खड़े हो गए। मैं भी उन्हें बाहर तक छोड़ने आया। उनका ऑटो खड़ा था, सो वे उसमें बैठकर नमस्कार कहते हुए वहाँ से चले गए।

मेरे एक परिचित हैं, शर्मा जी। वे शिक्षक कम, लेकिन मेरे लिए बड़े भाई समान और बेहद ईमानदार व्यक्ति हैं। मैंने उन्हें फोन मिलाया और शुक्रवार के लिए दो रेल टिकट लेने को कहा। साथ ही बताया कि वे मेरे साथ कानपुर चल रहे हैं। उन्होंने सहमति जताई, और इस तरह हमारा काम शुक्रवार के लिए तय हो गया।

अब मुझे वहाँ के लिए तैयारी करनी थी। मामला जिन्नात का था—वे बेहद अकड़ वाले, ताकतवर और चालाक होते हैं। आप जो भी अमल (अनुष्ठान) करने जा रहे होते हैं, उन्हें पहले से ही आभास हो जाता है। इसलिए, उनके लिए तैयारी भी अलग ढंग से करनी पड़ती है। मेरे पास केवल चार दिन थे, और मैं पूरी तरह तैयारियों में जुट गया।

कानपुर की यात्रा

शुक्रवार को हम दोनों ट्रेन में सवार होकर कानपुर के लिए रवाना हो गए। दोपहर साढ़े तीन बजे हम कानपुर पहुँच चुके थे। वहाँ से आगे जाने के लिए हमने बस ले ली। हालाँकि रमेश जी हमें लेने आ सकते थे, लेकिन मैंने उन्हें मना कर दिया था। मैं नहीं चाहता था कि शिवानी को हमारी आने की भनक लगे। हम चुपचाप वहाँ पहुँचना चाहते थे।

थोड़ी देर सफर करने के बाद हम उस जगह पहुँच गए और पैदल ही आगे बढ़ने लगे। रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा था। मैंने एक दुकान वाले से पता पूछा, तो उसने हमें सही दिशा बता दी। करीब दस मिनट के बाद हम रमेश जी के घर के सामने खड़े थे। घर बहुत सुंदर और सुव्यवस्थित था, रमेश जी ने उसमें बहुत से पेड़-पौधे लगा रखे थे।

रमेश जी के घर पर

मैंने रमेश जी के घर की घंटी बजाई। उनका बेटा बाहर आया। मैंने उसे बताया कि हम दिल्ली से आए हैं। उसने नमस्कार किया और हमें अंदर ले गया। तभी रमेश जी भी बाहर आ रहे थे। हमारी मुलाकात हुई, और वे हमें अपने कमरे में ले गए।

रमेश जी की पत्नी भी वहाँ आ गईं। हम कमरे में बैठ गए, तब तक वे रसोई में चली गईं। मैंने रमेश जी से पूछा,

"शिवानी क्या कर रही है?"

"अभी सो रही है," उन्होंने जवाब दिया।

"ठीक है, पहले हमारे हाथ-मुँह धुलवा दीजिए," मैंने कहा।

वे उठे, और हम उनके पीछे-पीछे बाथरूम तक गए। मैंने और शर्मा जी ने हाथ-मुँह धोया और वापस कमरे में आ गए। तब तक चाय आ चुकी थी। हमने चाय का कप उठाया, और मैंने रमेश जी से पूछा,

"क्या आस-पड़ोस वालों को शिवानी के बारे में पता है?"

"हाँ साहब, ऐसी बातें ज्यादा देर तक छिपती नहीं। लोग कहने लगे हैं कि रमेश जी की लड़की पागल हो गई है," उन्होंने भारी मन से कहा।

मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, "कोई बात नहीं, अब हम आ गए हैं। घबराइए नहीं।"

रमेश जी बोले, "बस साहब, अब तो आपका ही सहारा है। नहीं तो बर्बाद होने में कोई कसर नहीं रही।"

"आप घबराइए नहीं, ईश्वर ने चाहा तो आपकी बेटी हमेशा के लिए ठीक हो जाएगी," मैंने चाय का प्याला मेज़ पर रखते हुए कहा।

"ठीक है रमेश जी, आप हमें कोई कमरा दीजिए, मैं आज रात ही यह काम करूँगा," मैं उठते हुए बोला।
उन्होंने अपने बेटे का कमरा हमें दे दिया। फिर उन्होंने खाने के बारे में पूछा, तो मैंने कहा, "हम रात को ही खाना खाएँगे, आप परेशान न हों, अभी हमें भूख नहीं है।"

मैं और शर्मा जी आराम करने लगे और आगे की योजना बनाने लगे। जो वस्तुएँ हम साथ लाए थे, उन्हें बैग से निकालकर तैयार किया और फिर सो गए।

करीब 7 बजे मेरी नींद खुली। शर्मा जी पहले ही जाग चुके थे। वे ध्यान मुद्रा में बैठे मंत्रोच्चारण कर रहे थे। मैं भी मुँह धोने बाथरूम गया और वापस आकर अपनी अभिमंत्रित मालाएँ धारण कीं, कमरबंद बाँधा, और खुद को तथा शर्मा जी को रक्षा मंत्र से बाँधा।

मुझे यह काम रात 9 बजे से शुरू करना था। 8 बज चुके थे। मैंने रमेश जी के घर की दहलीज़ को मंत्रों से बाँधा, ताकि कोई भी बुरी ताकत न तो वहाँ से बाहर जा सके और न ही अंदर आ सके। फिर मैंने घर के चारों कोनों को भी मंत्रों से सुरक्षित किया।

अब समय हो चुका था शिवानी के कमरे में जाने का।

मैं एक बार फिर रमेश जी के कमरे में आया और उनसे, उनकी पत्नी और बेटे से कहा, "आपमें से कोई भी बाहर न निकले, जब तक कि मैं न कहूँ।"

इतना कहने के बाद मैं कमरे से बाहर निकला और शर्मा जी के साथ शिवानी के कमरे की ओर बढ़ा।

शिवानी का दरवाज़ा आधा खुला था। मैंने दरवाज़ा खटखटाया।

अंदर से आवाज़ आई, "कौन?"

मैं वहीं खड़े-खड़े बोला, "बाहर आकर देख ले कि कौन!"

"ठीक है, मैं आता हूँ... मैं ही आता हूँ," शिवानी ने कहा।

जैसे ही शिवानी ने मुझे देखा, मैंने अपने साथ लाई हुई भभूत उसके जिस्म पर दे मारी। उसके होश उड़ गए। उसने बार-बार चारों तरफ देखा और लंबी-लंबी साँसें लेने लगी।

"आजा, तू भी आजा... तुझे भी देख लेता हूँ मैं! तू आ तो गया है, लेकिन अब यहाँ से ज़िंदा नहीं जाएगा!" उसने बिस्तर पर चढ़कर कहा।

मैं ज़ोर से हँसा और बोला, "तेरे जैसे मैंने कई अपने यहाँ पाल रखे हैं, अब तेरी बारी है! तुझे भी 25 साल तक ज़मीन में दफ़न करके रखूँगा!" मैंने अपना पाँव उसके बिस्तर पर रखते हुए कहा।

"वाह, बड़ी हिम्मत है तुझमें! चल, एक काम कर—तू यहाँ से चला जा... यूँ बे मौत मरने आया है तू दिल्ली से यहाँ!" उसने एक हाथ दूसरे हाथ पर मारते हुए कहा।

मैं हँसते हुए बोला, "मैं तो जाऊँगा ही, लेकिन तुझे भी साथ लेकर जाऊँगा! यूँ ही नौकरी नहीं करेगा मेरी?"

"तो सुन! तू मुझे जानता नहीं है! मेरा नाम अशफाक है। मैं बहेड़ी का रहने वाला हूँ... जिन्न हूँ, क़ातिल जिन्न! इसलिए कह रहा हूँ कि चला जा यहाँ से... यूँ मरने आ गया है!" वह हँसते हुए बोली।

मैं ग़ुस्से से बोला, "तो तू भी सुन! मैंने तुझे बड़े प्यार से समझाया, लेकिन लातों के भूत बातों से नहीं मानते! देख, मैं अब भी कह रहा हूँ—इसे छोड़ दे, नहीं तो मैं तुझे अभी भस्म कर दूँगा!"

मेरी आवाज़ तेज़ और ग़ुस्से से भरी हुई थी।

वह मुस्कराई और बोली, "क्या सोचा तूने? जा रहा है, या करेगा मुझसे दो-दो हाथ?"

मैं हँसते हुए बोला—

अब शिवानी ने आँखें बंद कीं और तेज़-तेज़ अरबी आयतें पढ़ने लगी। मैंने शर्मा जी से कहा, "बैग में से वह राख मुझे दो, जो मैंने तैयार की थी।"

शर्मा जी ने राख की पोटली मेरे हाथ में थमा दी। मैंने मंत्र पढ़ते हुए वह राख अपने हाथ पर निकाली और शिवानी की तरफ बढ़ा।

शिवानी सिहर गई और बिस्तर पर पीछे की ओर सरकने लगी। साफ था कि वह इस राख से डर गई थी। उसकी नज़रें मेरे हाथ पर टिकी थीं, जैसे उसे समझ नहीं आ रहा हो कि क्या किया जाए।

"बोल, लगाऊँ तेरा पलीता?" मैंने कहा।

"रुक जा... रुक जा... मुझे सोचने दे!" वह बोली।

"ठीक है, सोच ले... और जल्दी बता!"

करीब 7-8 मिनट तक वह चुपचाप लेटी रही। फिर अचानक उठकर बैठ गई। अब उसकी आवाज़ बदल चुकी थी। उसके गले से एक भारी, डरावनी और मदमाती आवाज़ आ रही थी।

"इसके बाप को बुलाओ, मैं बात करना चाहता हूँ!" वह बोला।

मैंने कहा, "ठीक है," और शर्मा जी से रमेश जी को बुलाने के लिए कहा।

रमेश जी और शर्मा जी तुरंत आ गए।

"बता, क्या बात करना चाहता है तू?" मैंने पूछा।

इस बीच मैंने अपने मंत्रों से बँधे फूल शिवानी के बिस्तर पर डाल दिए। वह और ज्यादा सिमट गई। फिर अशफाक बोला—

"सुन, मैंने तेरी लड़की को पसंद किया है! मैं इससे मोहब्बत करता हूँ! तू इसकी शादी मुझसे कर दे। बदले में तू जो चाहेगा, वो मैं तुझे दूँगा!"

रमेश जी ने घबराकर मेरी ओर देखा...

मैंने ग़ुस्से में कहा, "नहीं! यह मुमकिन नहीं है! यह इंसान है और तू जिन्न! कोई मेल नहीं है तेरा और इस बेचारी लड़की का, जिसकी ज़िंदगी तू बर्बाद कर रहा है!"

"देख, अगर तू सोच रहा है कि मैं इसे छोड़ दूँगा, तो यह भी मुमकिन नहीं है!" वह भी ग़ुस्से में बोला।

"तो तू ऐसे नहीं मानेगा, है न? ठीक है! अब मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा! मैं यहाँ तुझे भस्म करने ही आया हूँ!" मैंने कहा।

इतना कहते ही मैंने शिवानी के बाल पकड़े और 4-5 झटके दिए। उसने कोई विरोध नहीं किया। मैं हँसने लगा।

मैंने अशफाक को गालियाँ दीं और कहा, "अगर अपने बाप की औलाद है तो सामने आ मेरे! तभी तुझसे आमने-सामने बात करूँगा!"

"ठीक है! इसको मारना छोड़! मैं आता हूँ तेरे सामने! लेकिन इसे हाथ मत लगाना!"

अशफाक चिल्लाया।

मैंने शिवानी के बाल छोड़ दिए और उसके आने की तैयारी करने लगा।

10 मिनट बीत चुके थे...

तभी शिवानी ने एक ज़ोरदार झटका खाया और ज़मीन पर गिर पड़ी। मैं समझ गया कि अब अशफाक किसी भी पल मेरे सामने आने वाला है।

और वैसा ही हुआ!

अचानक हवा में से एक भारी-भरकम, गोरा-चिट्टा, 9 फुट लंबा जिन्न प्रकट हुआ!

पतली दाढ़ी, खुशबूदार कपड़े, हाथों की सारी उँगलियों में अंगूठियाँ पहने हुए...

"ले! आ गया मैं! अब बता, क्या चाहता है?" वह बोला।

मैंने कहा, "अशफाक, तू यूँ इस बेचारी लड़की को तंग कर रहा है? ये तेरी दुनिया की नहीं है। तू अपनी दुनिया में ही रह, छोड़ दे इसे अभी!"

"नहीं! कभी नहीं! कभी नहीं छोड़ूँगा! मरते दम तक नहीं छोड़ूँगा!" वह चीखा।

"तुझे छोड़ना पड़ेगा! आज ही, अभी ही, इसी वक्त!" मैंने ज़ोर देकर कहा।

"देख, तेरी वजह से इसके परिवार के लोग भी परेशान हैं। लोग इस लड़की को पागल कहते हैं, इसकी माँ हर वक्त रोती रहती है, भाई बदहवास रहता है, बाप ख़ुदकुशी करने के करीब है! इसकी पढ़ाई खराब हो रही है, इज़्ज़त खराब हो रही है, शादी कैसे होगी इसकी?" इस बार मैंने उसे शांत लहज़े में समझाने की कोशिश की।

"ठीक है!" अशफाक बोला, "एक काम कर, इसके बाप से कह कि इसकी शादी कर दे, लेकिन 15 दिन ये अपने आदमी के साथ रहेगी और 15 दिन मेरे साथ! बोल, क्या कहता है?"

"बिल्कुल नहीं! ऐसा होगा ही नहीं!" मैंने गुस्से में कहा।

मेरी और उसकी बहस करीब 2 घंटे तक चलती रही, लेकिन वह नहीं माना। मैंने उसे आख़िरी चेतावनी दी, "मान जा, वरना तुझे अभी ख़त्म कर दूँगा!" लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ।

असली जंग शुरू होती है...

अब मैंने पूजा शुरू कर दी। मैंने अभिमंत्रण शुरू किया और अभिमंत्रित पानी शिवानी के शरीर पर छिड़क दिया। जब तक वह पानी सूखता नहीं, अशफाक उसमें वापस नहीं घुस सकता था।

रात के 2 बज चुके थे। पूजा समाप्त होने ही वाली थी कि अशफाक ने मुझे आवाज़ दी,

"रुक जा! रुक जा!"

मैंने उसकी बात को नज़रअंदाज़ किया और अपनी सिद्धि को और तेज़ कर दिया।

शिवानी बेहोश फर्श पर पड़ी थी। कमरे के बाहर रमेश जी खड़े थे, और मेरे साथ शर्मा जी थे, जो लगातार मेरी मदद कर रहे थे।

अशफाक अब बेचैन होने लगा था। वह बार-बार "रुक जा! रुक जा!" कहे जा रहा था।

आख़िरकार, मेरी सिद्धि समाप्त हुई।

जैसे ही पूजा समाप्त हुई, अशफाक ग़ायब हो गया।

लेकिन वह गया नहीं था... वह मेरी सिद्धि का तोड़ निकालने गया था।

अंधकार का प्रहार

अचानक, कमरे में धुआं भर गया। गर्म हवा के झोंके हमारे चेहरे पर पड़ने लगे। लेकिन मैंने अपनी तंत्र शक्ति से इसे तुरंत समाप्त कर दिया।

फिर, सब कुछ पहले जैसा शांत हो गया।

अशफाक फिर हाज़िर हो गया था!

लेकिन अब वह पहले से भी ज़्यादा बेचैन था।

अब मैं उसकी कोई बात नहीं सुन रहा था। वह कमरे में रखी चीज़ें उठाकर पटकने लगा।

ग़ुस्से में उसने टीवी उठाकर हमारी ओर फेंका!

हम तुरंत हट गए।

मैं ज़ोर से चिल्लाया, "अशफाक, बदतमीज़! बेगैरत! आज तू नहीं बचेगा!"

मैंने तुरंत अपने मंत्रों का जाप शुरू कर दिया और अपनी ताकत बुलानी शुरू की।

अब अशफाक गिड़गिड़ाने लगा।

"मुझे राख कर देने से तुझे क्या मिलेगा? इसके बाप से कह, मैं इसे ज़मीन के अंदर दबा खज़ाना दिला दूँगा! बस मुझे इस लड़की से जुदा मत कर! जो चाहेगा, मैं दूँगा! मेरी मुहब्बत की ख़ातिर मान जा!"

अब मैं हँसने लगा।

मैंने कहा, "अशफाक, तुझे मैंने कई मौके दिए, लेकिन तू नहीं समझा। अब तू खाक होने वाला है!"

अंतिम प्रहार...

इतना कहते हुए मैंने अपना खंजर निकाला, और उससे अपना हाथ हल्का सा काटकर उसका रक्त छिड़का!

जैसे ही खून की बूंदें अशफाक पर पड़ीं...

वह धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ा और चिल्लाया...

"माफ कर दे, मुझे बख्श दे! मुझे बख्श दे! तू जैसा कहेगा, मैं करूंगा, मैं करूंगा! मुझे बख्श दे!"

लेकिन मैं नहीं माना। मैंने एक बार और राख के छींटे उस पर डाल दिए। वह कराह उठा!

अब मैं अशफाक पर पूरी तरह हावी हो चुका था। वह मेरे सामने गिड़गिड़ा रहा था, उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं। उसकी आँखों में वैसा ही डर था, जैसा कोई जल्लाद को देख कर महसूस करता है।

मैंने अशफाक से कहा, "सुन, अब जो मैं कहता हूँ, उसे ध्यान से सुन। तू अभी इसी वक्त इसे छोड़कर जाएगा। जिस हाल में इसे पकड़ा था, ठीक वैसे ही इसे स्वस्थ छोड़कर जाना होगा। समझा? बोल, करेगा ऐसा?"

"हाँ, हाँ! बिल्कुल करूंगा!" उसने जल्दी से कहा।

"और तू अब यहाँ से मेरे साथ जाएगा। तेरी पेशी तेरे बादशाह के पास होगी। तू सज़ा का हकदार है, और तुझे सज़ा मिलेगी ही, नहीं तो तू फिर किसी को तंग करेगा। अब तैयार हो जा मेरे साथ चलने के लिए। मंज़ूर है?"

"हाँ! हाँ! बिल्कुल मंज़ूर है!" वह बोला।

मेरे पास एक डिबिया थी, जो हर एक तांत्रिक के पास होती है। यह इंसानी हड्डियों से बनी होती है, और इसमें महाबली तंत्र के ज़रिए जिन्नों को क़ैद किया जाता है।

मैंने अशफाक से कहा, "अब चुपचाप इस डिबिया में आ जा!"

वह मायूस सा हो गया। मैंने उसे फिर से डांटा, "आता है या नहीं?"

"आ रहा हूँ... लेकिन एक बार मुझे इसे देख लेने दो। मैंने इससे वादा किया था कि इसे अपने हाथों से सजाऊंगा!" उसने बेहोश पड़ी शिवानी की ओर देखते हुए कहा।

"बिल्कुल नहीं!" मैंने सख्ती से मना कर दिया।

फिर मैंने उससे पूछा, "एक बात बता, तू इसके पीछे पड़ा कैसे?"

उसने कहा, "ये एक बार अपनी सहेली के साथ एक मजार पर गई थी। वहीं खड़ी थी, अपनी सहेली से बातें कर रही थी। मैं हवा में उड़ते हुए वहाँ से गुज़र रहा था। मेरी नज़र इस पर पड़ी। ये मुझे बेहद खूबसूरत लगी। मैंने उसी वक्त सोच लिया कि ये सिर्फ मेरी होगी। कोई और इसे छू भी नहीं सकता!"

"लेकिन अब सब ख़ाक हो गया! तूने मुझसे मेरी मुहब्बत छीन ली!" वह बार-बार शिवानी को देख रहा था।

मैंने उसे समझाया, "देख अशफाक, तेरी और हमारी दुनिया में ज़मीन-आसमान का फर्क है। तू अभी जिन्नों की दुनिया में सिर्फ़ 13-14 साल का है, इसलिए ऐसी बातें कर रहा है। तूने बहुत बड़ी गलती की है, और तुझे तेरे गुनाहों की सज़ा ज़रूर मिलेगी!"

इतना कहते हुए मैंने अशफाक की ओर अभिमंत्रित पानी फेंका। वह तिलमिला उठा!

फिर मैंने अपने हाथ में पकड़ी डिबिया खोली, और अशफाक धुएं की तरह उसमें समा गया!

सब कुछ खत्म हो चुका था!

मैंने शिवानी के सिर पर मंत्र पढ़ते हुए सरसों के दाने मारे और फिर कमरे से बाहर निकल आया। सुबह हो चुकी थी। पूरा परिवार जाग चुका था। कुछ पड़ोसी भी आ गए थे।

मैंने रमेश जी से कहा, "अब सब कुछ ठीक है। आप शिवानी को नहलवा दें, अब वह पूरी तरह ठीक है!"

इतना सुनते ही रमेश जी और उनकी पत्नी ज़ोर-ज़ोर से रो पड़े। उनकी आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। रमेश जी मेरे पैरों में गिरने लगे, लेकिन मैंने उन्हें रोका।

"साहब... आपने हमें बर्बाद होने से बचा लिया। आप हमारे लिए भगवान की तरह हैं!" रमेश जी फूट-फूटकर रो रहे थे। उनका बेटा भी भावुक होकर खड़ा था।

मैंने शर्मा जी की ओर देखा। वह भी संतोष से मुस्कुरा रहे थे।

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