दितिया की एक घटना

मैं आपको एक ऐसी घटना बताता हूँ जो मेरे मन में आज भी ताजा है और जिसका मैं यहाँ वर्णन कर रहा हूँ। ये घटनाएँ मेरे मन में उभरती हैं, इसलिए मैं इन्हें लिख देता हूँ। इसी कारण मैं समय-सारणी का ध्यान नहीं रख पाता। आपसे विनती है कि इन घटनाओं का आप स्वयं ही कर लें।

यह वर्ष 2009 की बात है, गर्मियों के दिन थे, और अप्रैल महीना खत्म होने को था। मैं उन दिनों एक साधना समारोह के बाद, कोई 10 दिन पहले ही गोरखपुर से आया था। यहाँ आते ही मेरे मित्र शमा जी मुझसे मिलने पहुँचे। कुशल-मंगल की बातें हुईं, क्योंकि मैं 1 महीने से उनसे नहीं मिला था। मैं गोरखपुर में था और वो यहाँ दिल्ली में रहते हैं। शमा जी दिल्ली में सभी आवश्यक कार्य निबटाते हैं, इसलिए वो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

एक दिन रात के समय, कोई 10 बजे उनका फोन आया और उन्होंने बताया कि वो मुझसे मिलने सुबह मेरे पास आ रहे हैं, और उनके साथ 2 और लोग भी आ रहे हैं। मामला थोड़ा गंभीर था, और इसी बारे में कुछ बातें करनी थीं। मैंने कहा कि ठीक है, कल दिन में सुबह 10 बजे आप उन्हें मेरे पास ले आइए। उस रात मैं अलख में बैठा था और सुबह 4 बजे की अलख का समापन करना था। समापन के बाद मैंने नान किया और कुछ घंटे सोने के लिए चला गया।

सुबह ठीक 10 बजे, मेरे पास शमा जी आ गए। उनके साथ 2 अन्य व्यक्ति थे। एक व्यक्ति शांत परिवार से संबंधित लग रहा था और दूसरा किसान के जैसा। उसकी गरीबी उसके कपड़ों से झलक रही थी, लेकिन वो अत्यंत सौम्य था। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। दूसरा व्यक्ति थोड़ा तेज-तर्रार और नेता जैसा लग रहा था। खैर, हमारी बातचीत शुरू हुई।

शमा जी ने सबसे पहले मेरा परिचय उस नेता जैसे व्यक्ति से करवाया, "ये ईमान किपल हैं, इनका वाराणसी में अपना कपड़े का काम है, और वाराणसी में ही रहते हैं।" शमा जी के इतना कहने के बाद किपल ने मुझे हाथ जोड़कर नमस्कार किया। फिर शमा जी ने उस किसान की तरफ इशारा किया और बोले, "ये ईमान नदलाल हैं, ये दितया से करीब 40 किलोमीटर दूर के एक गाँव पिडू में रहते हैं। आगे की बात ये स्वयं आपको बताएँगे।" इतना कहते हुए शमा जी ने नदलाल को बोलने के लिए कहा।

नदलाल ने बोलना शुरू किया, "गुरु जी, हम 3 भाई हैं, मैं सबसे बड़ा हूँ। हमारे पास कोई 10 बीघे जमीन है, और ये जमीन हमारे बाप-दादाओं के समय से हमारे पास है। हम तीन भाईयों में बहुत प्रेम है और कोई समय नहीं है, जो कुछ भी खेती से मिलता है, उसी में हम तीन भाई आपस में बराबर-बराबर बाँट लेते हैं। आज से कोई 2 महीने पहले की बात है, हमारे खेत के दाईं तरफ 4 पीपल के पेड़ हैं, और उनके नीचे एक चबूतरा है। ये चबूतरा किसने बनवाया, ये हमें मालूम नहीं, क्योंकि ये चबूतरा हम अपने बचपन से देखते आ रहे हैं। आज से 2 महीने पहले मैं और मेरा सबसे छोटा भाई खेत में पानी लगाने जा रहे थे, मैंने देखा कि उस चबूतरे पर एक बड़ा सा सांप कुंडली मारे बैठा है। सांप काफी बड़ा था, करीब 10 फुट का। मैं और मेरा छोटा भाई ये देखकर घबरा गए। हमने सोचा कि हो सकता है, ये वहीं के कोई देवता हैं, सो हमने उनको नाम दिया और अपने काम पर लग गए। लेकिन उस सांप का खयाल अभी तक हमारे मन में डर पैदा कर रहा था। एक तो हमारे जानवर वहाँ चरने जाते हैं, और दूसरा यह कि उस चबूतरे के पास ही गाँव में घुसने का एक और रास्ता है, जहाँ से छोटे बच्चे पढ़ाई करने विद्यालय जाते हैं। यदि किसी को इस सांप ने डस लिया तो मुसीबत हो जाएगी, ऐसा सोचकर हम फिर से उस चबूतरे पर चले गए। हमने देखा कि सांप चबूतरे के एक कोने से चबूतरे के अंदर घुस रहा है। अब हम और डर गए, क्योंकि ये चबूतरा हमारे ही खेत में है।"

इतना कहते हुए नदलाल थोड़ा रुक गए, खांसा, और फिर से कहना शुरू किया...

"वो सांप कैसे रंग का था?" मैंने पूछा।

"जी, काले रंग का नहीं था, कुछ पीला और कुछ काला था," नदलाल बोला।

"अच्छा, फिर, यहाँ?" मैंने सवाल किया।

"गुरु जी, ये बात हमने अपने एक-दो लोगों को बताई, उन्होंने कहा कि ये देवता हैं, उनकी पूजा-अर्चना करो, उन्हें दूध पिलाओ, और हमने ऐसा ही किया। शाम ढलते ही हम एक मिट्टी के बर्तन में दूध लेकर चबूतरे के पास रख देते, लेकिन 2 दिन, 4 दिन, हफ्ता गुजर गया, दूध वैसा का वैसा ही रहता, और कमाल ये कि वहाँ तो अब कोई कुत्ता भी नहीं आता था जो दूध ही पी ले!" नदलाल थोड़े गंभीर होकर बोले।

"लेकिन हमारा डर हमारे ऊपर हावी रहा। तब एक व्यक्ति ने जो गाँव में पढ़ा-लिखा है, रिटायर्ड फौजी है, कहा कि किसी सपेरे को बुलाओ और ये सांप पकड़कर जंगल में दूर कहीं छोड़वा दो। ये सलाह हमें पसंद आई, और इस तरह से मैं अपने एक भाई के साथ झाँसी निकल पड़ा। झाँसी हमारे यहाँ से 34 किलोमीटर पड़ता है। वहाँ एक सपेरे से मुलाकात हो गई, उसने कहा कि वो सांप पकड़ लेगा लेकिन 1000 रुपये भी लेगा। हमने सोचा कि चलो, इतने पैसों में इस समस्या से निजात मिल रही है तो ठीक है। सपेरे ने कहा कि वो आधे पैसे अभी लेगा और आधे पैसे बाद में। हमने उसे पैसे दे दिए, सपेरे ने कल दोपहर में आने का समय दिया। किराए के पैसे के लिए सो अलग, वो हमने दे दिए, और हम वापस अपने गाँव आ गए।"

"फिर क्या हुआ?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"अगले दिन 1 बजे करीब वो सपेरा आ गया, अपने साथ दो और लोगों को लेकर आया था। एक व्यक्ति उम्र में यही कोई 50-55 और दूसरा कम उम्र का था, कोई 20-22 साल का। उन्होंने अपना सामान निकाला और हमसे चबूतरे तक उन्हें ले जाने को कहा। हम उठे और उन्हें उस चबूतरे तक ले गए। उसने वहाँ आस-पास देखा और थोड़ी सी लकड़ियाँ इकट्ठा करके चबूतरे के आस-पास आग लगा दी, यानी कि चबूतरे के तीन तरफ। उसने बताया कि सांप भागें नहीं इसलिए ऐसा कर रहे हैं। उन्होंने एक सबल मंगवाया और चबूतरे के ऊपर के पत्थर निकालने लगे, काफी मेहनत वाला काम था वो। आखिर 1 घंटे बाद वो पत्थर हटा दिया, नीचे काफी अंधेरा था। मैंने मोबाइल फोन का टॉर्च जलाया तो अंदर देखा तो एक रास्ता सा दिखा, जो डेढ़ फुट चौड़ा था। हमारे तो होश उड़ गए! ये क्या चीज है?" नदलाल ने आँखें चौड़ी करके कहा।

"फिर, फिर क्या हुआ?" शमा जी ने पूछा।

"जी, उसके बाद सपेरे ने कहा कि 2-4 बॉटल पानी लाओ, और उसने 1 बॉटल पानी अंदर डाला, और जैसे ही उसने दूसरी बॉटल पानी डाली, अंदर से बड़ी भयानक फुफकारने की आवाज आई। मैं और वहाँ खड़े लोग पीछे हट गए, और तब..."

"तब क्या हुआ?" शमा जी ने पूछा।

"तब गुरु जी, उस रास्ते से, न जाने कहाँ से हजारों सांप बाहर निकल आए, काले, सफेद, पीले, मटमैले, छोटे, बड़े। ये देखकर हमारी चीख निकल पड़ी, हम तुरंत वहाँ से भागे, सपेरा भी अपना सारा सामान वहाँ छोड़कर भागा। हम पीछे की तरफ दौड़े, और एक ऊँचे से पत्थर पर चढ़ गए। पूरे खेत में सांप ही सांप! बड़ा भयानक था गुरु जी वो, और फिर कोई 10 मिनट के भीतर वो सारे सांप जैसे आए थे, वैसे वापस चले भी गए," नंदलाल ने चाय का एक घूंट पीते हुए कहा। चाय तब तक आ ही चुकी थी।

मामला सच में ही विचित्र था, मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। मैंने फिर से नदलाल को देखा और कहा, "उसके बाद तुमने क्या किया?"

"उसके बाद तो हमारी हिम्मत ही जवाब दे गई। क्या करें या न करें, 15 दिन इसी कशमकश में बीते। मैं तब जाकर इन किपल से मिला, ये मेरे बचपन का दोस्त है, ये अब वाराणसी में रहता है और मैं अभी भी गाँव में ही," नदलाल ने बताया।

"मैंने अब किपल की तरफ देखा, अब किपल ने कहना शुरू किया, "गुरु जी, ये सब सुनने के बाद यकीन न करने का तो कोई सवाल ही नहीं था। मैंने अपने 1-2 जानकारों से ये बताया, उन्होंने कहा कि वो एक तांत्रिक को जानते हैं, वो उन्हें लेकर वहाँ आएंगे और तब वो बताएँगे कि क्या करना है। मैं इन लोगों के साथ उस तांत्रिक के पास पहुँचा, उसने सुना और बोला, काम हो जाएगा। अगर सिर्फ सांप भगाने ही हैं तो कुल रकम 25,000 रुपये लगेंगे। ये रकम नदलाल के लिए काफी बड़ी थी, सो मैंने दे दिए।"

किपल ने बताना जारी रखा...

"उस तांत्रिक ने आने वाली अमावस्या को आने को कहा, अभी अमावस्या आने में 4 दिन बाकी थे। सो मैं वाराणसी में ही रहा तब तक और फिर अमावस्या वाले दिन नदलाल के गाँव पहुँच गया। करीब 2 घंटे के बाद वो तांत्रिक भी वहाँ आ गया। आते ही उसने कहा कि चबूतरे पर चलो, हम चबूतरे के लिए चल पड़े। गुरु जी, ये चबूतरा, 8 गुना 8 फुट का है। तांत्रिक ने क्या आरंभ किया, थोड़ी देर तक कुछ नहीं हुआ, और उसके बाद चबूतरे में से धुआँ निकलना शुरू हो गया। हम घबरा गए, हवा में दुग्ध फैल गया, वहाँ काला मुहल्ला हो गया!" किपल बोला।

"लो मैंने सारे सांप भगा दिए! काम खत्म!" तांत्रिक ने बोला।

"गुरु जी, हमारी जान में जान आ गई! हमने सोचा कि चलो समय खत्म। तांत्रिक ने अपना सामान उठाना शुरू ही किया था कि अचानक, ज़मीन सी हिल गई, सन्नाटा छा गया, और तभी वो सांप, बड़ा वाला बाहर निकला, फुफकारता हुआ, तांत्रिक की तरफ फुफकारा। तांत्रिक भागा, और जब वो भागा तो हम उससे भी तेज भागे। तांत्रिक डर गया, सांप वहीं कुंडली मारके बैठ गया। हमने दूर से उसे देखा, वो ज़मीन में अपना फन पटक रहा था, जैसे कह रहा हो कि अब न आना, नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा।"

ये बात अब नदलाल ने कही।

"अब तो जान मुसीबत में थी, तांत्रिक ने बताया कि ये कोई बहुत बड़ी बला है, और उसे 11 दिन लगे अपनी पूजा करने में ताकि वो इससे निबट सके। हमारे पास कोई और चारा नहीं था उसका इंतज़ार करने के अलावा। इसी तरह 11 दिन बीत गए, 12वां भी बीत गया, और आज 27 दिन हो गए, तांत्रिक का कोई अता-पता नहीं है। उसके पास गए तो उसके चेले-चपाट ने बताया कि वो पूजा करने बरेली गए हैं," नदलाल ने कहा...

मैंने गौर से सारी कहानी सुनी, किपल से भी और नदलाल से भी। अब ये दोनों मेरे पास किसी उम्मीद से आए थे, तो ये मेरा कर्तव्य था कि उनकी भरसक मदद करूँ। मैंने उन्हें एक-दो दिन में फोन करने की बात कही। वो तब तक दिल्ली में ही सर्किट व्यवहार में ठहरे हुए थे। उन्होंने कहा कि ठीक है, फोन आने के बाद वो दुबारा आ जाएंगे, और ये कहकर वे दोनों वहाँ से चले गए!

शमा जी ने उत्सुकता से मुझसे पूछा, "गुरु जी, ये क्या माजरा हो सकता है? समझ में नहीं आ रहा मुझे तो?"

मैंने कहा, "शमा जी, इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला ये कि उस चबूतरे के नीचे कोई रहय दबा हुआ है, और दूसरा ये कि ये सांप वास्तव में कोई स्थानीय देवता हो भी सकता है। लेकिन ये तो हमें वहाँ जाने से, देखने से ही पता चलेगा। आप एक काम करें, इनको कल फोन करें कि हम इस इतवार को दितया आ रहे हैं, और ये हमें वहीं मिलें। वहाँ से हम आगे के लिए चलेंगे।"

"ठीक है, मैं फोन कर दूंगा, और बता दूंगा कि इस इतवार को हम दितया आ रहे हैं," शमा जी ने कहा।

"ठीक है, आप ऐसा ही करें," ये कहकर मैं अपने कमरे में चला गया और शमा जी अपने काम से चले गए।

मैं अपने कमरे में आकर लेटा और आगे की योजना बनाने लगा, कुछ सोचा-विचारा और आराम करने लगा!

दितया, अपने समय का रयासत रहा है, मय देश में स्थित ये जगह दिल्ली से 320 किलोमीटर दूर है, यानी कि वाराणसी और झाँसी के बीच में, झाँसी से 30-35 किलोमीटर पहले ही पड़ता है। भूमि अधिकांशत: पत्थरीली ही है!

किसी तरह ऐसा बना कि किपल ने इतवार को एक गाड़ी बुक करा ली। वो नियत समय पर इतवार को सुबह 7 बजे नदलाल के साथ पहुँच गए। मैं और शमा जी पहले से ही तैयार थे, सो उनके आते ही गाड़ी में बैठ गए और दितया के लिए रवाना हो गए.....

हम करीब 3 बजे दितया पहुँचे, मगर आगे गाँव तक जाने में 2 घंटे और लग गए। रास्ता इतना खराब था कि कहीं कह तो सड़क ही नहीं थी, बस ऊबड़-खाबड़ रास्ता और मोटे-मोटे पत्थर! आखिरकार शाम 5 बजे हम गाँव पहुँच गए। धूल-धक्कड़ बहुत थी, तो अब नहाना ज़रूरी था। मैंने और शमा जी ने नहाया और उसके बाद पूजा करने की तैयारी आरंभ कर दी। पूजा हेतु हमें एक छोटा सा कमरा दिया गया था। मैंने उनसे कहा कि 7:30 बजे शाम को वो मुझे चबूतरे पर ले जाएँ, वो राजी हो गए। हमने 7 बजे तक पूजा कर ली, तैयार हुए, मालाएँ, और अन्य वस्तुएँ धारण की और चबूतरे की तरफ बढ़ चले। दिन अभी पूरी तरह ढला नहीं था, ये अच्छा था हमारे लिए। चबूतरा दिखते ही मैंने बाकी लोगों को वहाँ रोक दिया और शमा जी के साथ वहाँ चल पड़ा। चबूतरा कोई 8 गुना 8 फुट का होगा, पत्थर से बना हुआ, एकदम मजबूत। बनाने वाले ने काफी मेहनत से बनाया होगा। चूँकि ये काफी पुराना था, इसलिए कई जगह से टूट-फूट चुका था। उसके आस-पास की ज़मीन भी पत्थरीली थी। मैंने अपने को और शमा जी को ध्यान-रक्षा में बांधा और जहां से पत्थर हटा हुआ था, वहाँ चल दिए। वहाँ कोई हरकत नहीं हुई। टॉर्च हम साथ लाए थे, मैंने टॉर्च जलाया तो अंदर एक रास्ता दिखा, डेढ़ फुट चौड़ा और उसकी एक सीढ़ी कोई 1 फुट की होगी। अंदर कोई हरकत नहीं हो रही थी। मैं और शमा जी वहीं खड़े रहे, मैंने मंत्र का उच्चारण किया और पढ़ी हुई लग्न अंदर फेंकी, एकदम हरकत हुई, कोई ऊपर आ रहा था। मैं तैयार था, ये वोही सांप था जिसका कि नदलाल और किपल ने किया था। वो सांप ऊपर आया और हमें देखते ही मुड़ा और अंदर भाग गया। मेरा एक संदेह तो खत्म हो गया, ये कोई स्थानीय देवता नहीं है, ये यहाँ पर क़ैद है, किसी ने क़ैद किया हुआ है।

मैंने सांप को देख लिया था, लेकिन एक चीज़ और मैंने देखी थी, वो सीढ़ियाँ कोई 10 फुट की थीं। ऊपर आने तक उसे उतना वक्त नहीं लगना चाहिए था जितना कि उसने लगाया था। इसका मतलब अंदर सीढ़ी के पास दूरी काफी है वहाँ के जहाँ ये रह रहा है!

मैं और शमा जी वापस आ गए, नदलाल और किपल को कहा कि हम ये काम अब कल सुबह करेंगे। फिर रात का खाना खाया, मिदरा पी और सो गए।

सुबह लगभग 9 बजे, हम फिर से तैयार होकर वहाँ चल दिए। जब हम वहाँ पहुँचे, तो देखा कि वहाँ काफी पानी पड़ा हुआ था। न जाने यह कैसे हुआ, न तो बारिश हुई थी और न ही कोई यहाँ आकर पानी डाल सकता था। खैर, मैंने नंदलाल से कहा कि चार आदमी लाएँ और जहाँ मैं कहूँ, वहाँ खोदें। लोग हिम्मत वाले थे, तुरंत तैयार हो गए और खोदना शुरू कर दिया। आधे घंटे बाद, चबूतरे का एक बड़ा पत्थर अंदर धंस गया। वे भागे और हम आगे बढ़े। अब हमें वह रास्ता दिखाया गया जो मुख्य रास्ता था। मैंने पत्थर हटवाया और, शमा जी के साथ अंदर उतरने लगा। अंदर उतरते समय लगातार फुफकारने की आवाज आ रही थी। हम भी तैयार थे। नीचे काफी ढलान थी, हम उतरे और आगे बढ़ गए। आगे जाते ही हमारे होश फाख्ता हो गए। अंदर कमरे बने हुए थे, घुप अंधेरा था, सिर्फ टोर्च की रोशनी थी।

हम फिर आगे बढ़े, बढ़ते बढ़ते, सामने एक चौड़ा सा चबूतरा मिला। वहाँ सांप वहीँ बैठा हुआ था, लेकिन वह अब फुफकार नहीं रहा था। मैंने समझा कि शिकार करना उचित नहीं समझा। वह हमें बस घूर रहा था, और हम उसे। उसकी आँखें अंगार की तरह दहक रही थीं। वह रगड़ के, फन उठाकर नीचे उतरा। मैंने अब शिकार किया, सांप मेरी शिकार से ऊपर उठा और धड़ाम से नीचे गिरा। ऐसा उसके साथ चार बार हुआ। अब वह अपने आकार से छोटा हो गया, उसका फुफकारना बंद हो गया। वह पीछे मुड़ा और हम उसके पीछे चले। वह हमें एक हौदी के पास लाया और हौदी में घुस गया। मैंने हौदी को देखा, यह हौदी चार गुना छह की होगी। मैंने हौदी में झाँका, वहाँ कई तरह के सांप रगड़ रहे थे, लेकिन सभी मायावी सांप थे! मैंने मन-ही-मन सोचा कि वे गायब कर दिए गए हैं। अब सिर्फ वही एक सांप बचा था! सांप नीचे गया, शायद नीचे और भी कोई जगह होगी, और बाहर आया और फन फैला के बैठ गया। मैंने देखा कि जहाँ वह बैठा है, वहाँ एक छोटा सा मटका पड़ा है। मैंने वह मटका उठाया, बिलकुल सांप के गदन के पास। वह मटका, एक मीठी के तातरी से बंद था। मैंने उसे तोड़ा और अंदर हाथ डाला। अंदर कुछ धातु के गोल-गोल टुकड़े मिले। खैर, मैंने वह मटका शमा जी को दे दिया और हौदी में उतर गया। हौदी कोई ढाई फुट गहरी होगी। सांप अब कुछ नहीं कह रहा था, हार मान चुका था। जैसे ही मैंने हौदी में छलांग लगाई, हौदी के एक-दो पत्थर अंदर धंस गए। मैं घबरा गया, मैंने टोर्च ली और अंदर की तरफ रौशनी की। जिस हौदी पर मैं खड़ा था, उसके नीचे भी एक बड़ा सा हॉलनुमा कमरा था! मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं! वहाँ करीब 500 बड़े-बड़े मटके पड़े हुए थे! अब मैं समझ गया था सारा माजरा!

मैंने शमा जी से कहा, "शमा जी, हमें फिर से इस सांप को पहले जैसा बनाना पड़ेगा। यह यहाँ नीचे रखे धन की रक्षा कर रहा है। इसे करने दो, जब तक इस धन का असली वारिस यहाँ नहीं आता, यह रक्षा करता रहेगा। हम यह धन नहीं ले सकते, इस पर हमारा हक नहीं है। इसने हमें यह मटका दी है, और हो न हो, इसमें भी सोना ही है।" मैंने फिर से शिकार का आह्वान किया और उसे उस सांप पर डाल दिया। सांप फिर से पहले जैसा हो गया। हमने सांप से माफी मांगी और बाहर की तरफ चल दिए। सांप वहीं बैठा रहा!

वह मटका शमा जी ने अपने पास रखी और हम वापस नंदलाल के पास आ गए। वह बेचैनी से वहाँ इंतज़ार कर रहे थे। मैंने कहा, "अब सब ठीक है, समय का अंत हो गया।" रात के समय, मैं और शमा जी अकेले थे। हमने खाना खा लिया था। मैंने शमा जी से कहा कि वह मटका लाएँ और देखें कि उसमें क्या है? शमा जी मटका लाए, और चारपाई पर तौलिया बिछाकर मटका खाली कर दी। उसमें से सोने के 187 सिक्के निकले, कुल वजन 250 ग्राम तो होगा ही! ये काफी पुराने, हाथ के ढले जैसे लगते थे। मैंने कहा, "शमा जी, जैसा सुबह मैंने कहा था, वैसा करना। मैं अभी आपको बताऊँगा कि क्या करना है।" मैंने उन्हें बताया और यह कहकर मैं सो गया।

सुबह नंदलाल और किपल को बुलाया। शमा जी ने कहा, "सुनो, यहाँ एक मंदिर है पुराना, ज़मीन के नीचे। शायद पहले कभी भूकंप में धंसक गया होगा। अब आपने एक काम करना है, इस चबूतरे पर ही एक मंदिर बनाना है। अब वह सांप नहीं आएगा, वह उस मंदिर का रक्षक है।" "ठीक है साहब, हम मंदिर बनवा देंगे, लेकिन वक्त लगेगा," उन्होंने कहा। मैं जानता था 'वक्त' की वजह! मैंने किपल और नंदलाल को सोमवार को दिल्ली बुलाया और हम वापस दिल्ली की ओर रवाना हो गए!

मंदिर बनते ही वहाँ कोई खुदाई करने की सोच भी नहीं सकेगा! ऐसा मैंने सोचा! तब तक शमा जी ने उन सिक्कों में से कुछ सिक्के बेच दिए थे, 3.5 लाख रुपये मिले थे। सोमवार को शमा जी ने वो पैसे लिए और किपल और नंदलाल के साथ मंदिर की नव-रखवाने की तैयारी कर दी।


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