यह घटना सन 2005 की है। जगह थी हिमाचल प्रदेश का चंबा जिला। वहाँ मेरे ताऊ जी का बड़ा लड़का, यानी मेरा कज़िन भाई, एक सरकारी उपक्रम में अधिकारी के पद पर कार्यरत है। मेरा उसके साथ बहुत ही दोस्ताना और आत्मीय संबंध है। जब भी वह दिल्ली आता है, तो हमेशा मुझसे मिलने आता है।
ऐसे ही एक बार जब वह दिल्ली आया था, तो वह मुझसे और मेरे एक दोस्त से मिला। उसने हमें वहाँ आने का निमंत्रण दिया। हमने अगले महीने, यानी दिसंबर में वहाँ जाने की योजना बना ली।
नियत समय पर मैं और मेरा दोस्त चंबा पहुँच गए। वहाँ मेरे कज़िन भाई ने हमारा स्वागत किया और हम लोग उसकी सरकारी गाड़ी से उसके निवास स्थान की ओर रवाना हो गए। रास्ता बेहद खूबसूरत था—चारों ओर हरियाली, छोटे-छोटे घर और वहाँ के ठंडे, सुहाने मौसम ने यह तय कर दिया कि हमारा वक्त वहाँ बहुत अच्छा बीतेगा।
मेरे कज़िन भाई का नाम ललित है। उसे वहाँ एक सरकारी आवास आवंटित हुआ था, इसलिए हम लोग वहीं ठहर गए। ललित की शादी अभी तक नहीं हुई थी, और वह वहाँ अकेला ही रहता था। कुल मिलाकर यह हमारे लिए शानदार अनुभव था—कोई रोक-टोक नहीं, जो मन करे खाओ-पियो, और आराम से रहो।
ललित का आवास शहर की चहल-पहल से दूर, शांत वातावरण में था, जो और भी बढ़िया बात थी। कहीं आने-जाने के लिए गाड़ी तो थी ही। खैर, उस शाम ललित ने खाने-पीने का इंतज़ाम किया और ठंड को देखते हुए शराब का भी। वहाँ सर्दी बहुत थी, और शाम 3 बजे के आसपास ही हल्का अंधेरा छाने लगता था। हमने खाना खाया और फिर रज़ाई में दुबक कर सो गए।
22 दिसंबर की सुबह
सुबह जब मेरी आँख खुली, तो मैं रोज़मर्रा के कामों से निवृत्त होकर, गर्म कपड़े पहनकर मकान के छज्जे पर आया। अब भी घना कोहरा था, ठंड बहुत तेज़ थी। मैंने सोचा कि नाश्ता करने के बाद ही घूमने-फिरने की योजना बनाई जाए। तब तक ललित की भी आँख खुल चुकी थी। सुबह के करीब 7 बजे थे।
ललित ने बताया कि नाश्ता आने वाला है, क्योंकि उसका ड्राइवर ही यह इंतज़ाम करता था। ठीक 7:30 बजे नाश्ता आ गया, गरमा-गरम चाय के साथ! ठंड और कोहरे के बीच इस चाय का स्वाद ही अलग था।
ललित ने बताया कि उसका ड्राइवर 10 बजे उसे उसके दफ्तर छोड़कर आधे घंटे में वापस आ जाएगा और फिर हम लोग उसके साथ घूमने-फिरने निकलेंगे। योजना बहुत शानदार थी!
घूमने-फिरने के 4 दिन:
हम हर दिन सुबह घूमने निकलते और शाम 5 बजे तक वापस लौट आते। उसके बाद खाना-पीना और फिर सो जाना। यही सिलसिला चलता रहा।
26 दिसंबर की रहस्यमयी घटना
एक दिन, 25 दिसंबर को, किशोर (ललित का ड्राइवर) ने बताया कि वह अपने परिवार के साथ कहीं जा रहा है और अगले दिन नहीं आ सकेगा। इसका मतलब था कि 26 दिसंबर को हमें ललित के घर में ही रुकना पड़ेगा। मैंने सोचा, कोई बात नहीं, एक दिन घर में ही सही।
अगली सुबह जब किशोर नहीं आया, तो मेरे दोस्त ने सुझाव दिया कि नाश्ते के लिए किसी पास के ढाबे में चला जाए। हमने बाहर नाश्ता किया और दोपहर के खाने के लिए कुछ सामान भी ले आए।
करीब 1 बजे मुझे झपकी लग गई और मैं सो गया। मेरा दोस्त भी सो गया। लगभग 3 बजे मेरी आँख खुली। मौसम पहले से साफ़ था, आसमान में सूरज भी दिख रहा था। मैंने सोचा कि थोड़ा टहल लिया जाए।
जंगल की ओर सफर
मैंने अपने कपड़े पहने और बाहर निकल आया। मैं लकड़ी के टाल और छोटे घरों की ओर चलने लगा। धीरे-धीरे इंसानी आबादी कम होने लगी थी। दूर-दूर तक खुला आसमान, शांत वातावरण, और सिर के ऊपर से गुज़रती हाई-टेंशन बिजली की मोटी-मोटी तारें... माहौल पूरी तरह शांत था।
चलते-चलते करीब 40 मिनट बीत गए। तभी मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे कोई खड़ा है। शायद कोई बच्ची थी, जो पेड़ के चारों ओर चक्कर लगा रही थी। मुझे यह अजीब लगा, तो मैं और करीब गया।
बच्ची के कपड़े पूरी तरह गीले थे और पानी अभी भी टपक रहा था। मैं समझ गया कि मामला सामान्य नहीं है। मैंने खुद को तैयार किया और बच्ची के करीब गया।
"तुम्हारा नाम क्या है?" मैंने पूछा।
वह कुछ बुदबुदाई, लेकिन मैं सुन नहीं पाया। मैंने फिर पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा?"
इस बार वह चुपचाप मेरी आँखों में देखने लगी। मैंने फिर पूछा, "अपना नाम बताओ?"
वह कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं। फिर अचानक उसने अपने हाथ से एक ओर इशारा किया। मैंने उधर देखा—वहाँ एक पुरानी, टूटी-फूटी टिम्बर फैक्ट्री थी।
बच्ची ने मेरा हाथ पकड़ लिया। ठंड में भी उसके हाथ की सिहरन मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई। वह मुझे फैक्ट्री के पीछे ले गई।
भयानक खोज
फैक्ट्री की पिछली ओर अंधेरा था, कीचड़ और सड़ी हुई लकड़ी की गंध आ रही थी। बच्ची मुझे एक छोटे से कमरे की ओर ले गई, जहाँ एक औरत खड़ी थी। औरत के हाथ में एक पुरानी अख़बार की कटिंग थी। उसने वह कटिंग मेरे हाथ में थमा दी।
अखबार की कटिंग में एक महिला और एक बच्ची की तस्वीर थी। नीचे लिखा था— "गुमशुदा की तलाश" और साथ में पुलिस अधिकारी का नाम और फोन नंबर।
मैंने ध्यान से देखा—ये वही औरत और बच्ची थीं, जो मेरे सामने खड़ी थीं!
दिल दहला देने वाला रहस्य
मैंने औरत से पूछा, "आप कौन हैं? क्या यह आपकी बेटी है?"
उसने कोई जवाब नहीं दिया, बस सिर हिला दिया। बच्ची ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे फैक्ट्री के अंदर एक जगह ले गई। वहाँ ज़मीन पर उसने इशारा किया।
पास ही एक फावड़ा रखा था। मैं समझ गया कि वह चाहती है कि मैं वहाँ खुदाई करूँ।
करीब एक घंटे की खुदाई के बाद मेरा फावड़ा किसी चीज़ से टकराया। मैंने ध्यान से देखा—वहाँ एक कंबल में लिपटी चीज़ थी।
जैसे ही मैंने उसे हटाया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए!
वहाँ दो कंकाल थे—एक महिला का और एक बच्ची का! दोनों लोहे की जंजीरों से बंधे हुए थे।
आत्माओं की आखिरी पुकार
औरत और बच्ची जोर-जोर से रोने लगीं। तभी अचानक, एक पल में, वे दोनों गायब हो गईं!
मैंने तुरंत पुलिस को सूचना दी। पुलिस आई और पुराने रिकॉर्ड खंगाले गए। पता चला कि 1984 में फैक्ट्री मालिक के बेटे ने एक महिला और उसकी बच्ची की हत्या कर दी थी।
लेकिन वे आज तक इंसाफ़ की राह देख रही थीं...
 
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