प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो
रात को नींद नहीं आ रही थी। बेचैनी में करवटें बदलते हुए जब थक गई, तो उठकर लैपटॉप खोल लिया। मैसेज रिक्वेस्ट्स पर नजर पड़ी। जिज्ञासावश क्लिक किया। वहां लिखा था:
*"अगर मैं गलत नहीं हूं, तो आप सीमा गुप्ता हैं? आपकी प्रोफाइल फोटो देखकर लग रहा है। वही सीमा, जो 40 साल पहले शिमला में रहती थीं। आपकी बहन का नाम सुमन था और भाई का नाम करण? मैं रजत मेहता हूं। आपके पिताजी के मित्र का बेटा। एक बार अपने माता-पिता के साथ आपके घर आया था और हम साथ शिमला घूमने गए थे। अगर आपको याद हो, तो कृपया जवाब दें।"*
"रजत!" मेरे मुंह से हल्की चीख निकल गई। धड़कनें तेज हो गईं। ऐसा लगा, जैसे किसी पुराने खजाने का ताला अचानक खुल गया हो। शादी के बाद मेरा नाम सीमा शर्मा हो गया था, लेकिन उसने मुझे पहचान लिया। 
मैं उसके नाम पर नजर गड़ाए रही। जवाब देने के लिए क्लिक करने लगी, लेकिन मन में सवाल उठा, "क्या ये ठीक रहेगा?" उसका नाम देखकर भीतर कई भाव उमड़ने लगे—खुशी और अपराधबोध का एक अजीब मिश्रण। मैंने खुद को रोका, लैपटॉप बंद किया और बिस्तर पर लेट गई। लेकिन "रजत मेहता" नाम दिमाग में हलचल मचा चुका था। 
मैं 17 साल की थी। पिताजी के दोस्त अपने बेटे रजत का एडमिशन कराने शिमला आए थे। कुछ दिनों तक वह हमारे घर रुका। रजत शांत और संयमित स्वभाव का था। मैं, मेरी बहन सुमन और भाई करण उसे शिमला की खूबसूरती दिखाने ले जाते। उसकी आंखों की गहराई ने कब मेरे दिल को छू लिया, पता ही नहीं चला। और मेरे खामोश इशारे शायद उसके दिल की आवाज सुन चुके थे। 
हमारे बीच एक मूक प्रेम पनप चुका था। लेकिन वो दौर ऐसा था, जब भावनाओं का इजहार खुलकर करना संभव नहीं था। 
रजत के संदेश ने मुझे अतीत में झांकने पर मजबूर कर दिया। चार दिनों तक खुद को रोकने की कोशिश की, लेकिन पांचवें दिन जवाब दिया:  
*"हां, तुमने सही पहचाना। मैं वही सीमा हूं। इतने सालों बाद मेरी याद कैसे आई?"*  
उसने तुरंत लिखा:  
*"याद उसकी आती है, जिसे कभी भुलाया गया हो। तुम्हें तो कभी भुला ही नहीं पाया।"*  
उसके शब्दों ने दिल को झकझोर दिया। मैंने पूछा:  
*"फिर मेरे पत्रों का जवाब क्यों नहीं दिया?"*  
उसने लिखा
*"पिताजी के देहांत के बाद घर की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। मां और बहनें मुझ पर निर्भर थीं। पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी। उस वक्त तुम्हारे पत्रों का जवाब देना मुमकिन नहीं था। लेकिन तुम हमेशा मेरे दिल में थीं।"*  
हमारी बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। उसने बताया कि उसकी दो बेटियां हैं और पत्नी बहुत सहयोगी है। लेकिन उसने यह भी स्वीकार किया कि उसके दिल का एक कोना अब भी मेरे लिए खाली है। 
कुछ दिनों बाद उसने बताया कि वह किसी शादी में शिमला आ रहा है और मुझसे मिलना चाहता है। पहले मैंने झिझकते हुए मना कर दिया, लेकिन बाद में सहमति दे दी। 
रजत अपनी पत्नी के साथ मेरे घर आया। मेरे पति भी मौजूद थे। बातचीत औपचारिक रही, लेकिन हमारी आंखों ने हमारी अधूरी कहानी कह दी। उसकी उपस्थिति में वह पुराना एहसास फिर से जाग उठा। 
रजत चला गया, लेकिन अपने साथ मेरी छिपी हुई यादों की परतों को फिर से खोल गया। गुलजार साहब की पंक्तियां इस एहसास को खूबसूरती से बयां करती हैं:  
*"सिर्फ एहसास है ये, रूह से महसूस करो,  
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।"*  
रजत के साथ बीता वह दौर और उसकी स्मृति, मेरे जीवन का एक ऐसा हिस्सा है, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता।
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