कोठेवाली
ताहिरा
के हिन्दू बाप की एक ही हिन्दू
बीवी थी। लेकिन तब वो ताहिरा
का बाप नहीं था,
सिर्फ
एक मुरीद था। बीबी बदरुन्निसा
की आवाज का। वो भी अकेला नहीं,
अनेकों
में एक। हर शनिवार रात के नौ
बजे रेडिओ लाहौर से वह आवाज
सुनाई देती। एक गजल सुनाती
और सुनने वाले अटकल लगाते।
कौन होगी?
कैसी
होगी?
जितनी
अटकलें,
उतने
चेहरे। कई–कई अजनबियों के
साथ अलग–अलग पहचान कायम करती
बेशुमार चेहरों वाली एक ही
आवाज।
"मुझे तो लगता है कि मेरे ही हाथ की बनी ताजा नानखटाई खा कर गाती है।"
"नहीं मियाँ, इतनी कुरमुरी नहीं कि मुँह में डालते ही घुल जाये। ये तो मटके में रख कर ठंडाया हुआ जलजीरा है। चुस्कारे लेकर पीयो और देर तक जायका बना रहे।"
"मेरी मानो तो ऐसा कि बन्नो रानी सतरंगी लहरिये वाली चुन्नी का पल्ला उछालती तीजों की पींग का हुलारा लेने जाती हो,"
"मन्नू ते बादशाओ सुन के सबज रंग दीया कच्च दीयाँ चूड़िया दिस्स जाँदीया नें। ऐंज लगदा है कि जींवे कोई हल्की जई वीणी खनका के अख्खाँ अग्गों ओजल हो जाये।"
"भई हमने लोगों को गजल कहते भी देखा है और गजल गाते भी सुना है, लेकिन फकत आवाज में रंग, खुशबू और जायके का माहौल। यह हुनर तो बस बदरूनिसा को ही हासिल है।"
"शायरी और मौसिकी का क्या रिश्ता जोड़ा है इस आवाज ने? लगता है कि जैसे शायर की इजाजत लेकर उसका कलाम उसीको पेश करती हो।"
"शर्तिया कुँवारी होगी। आवाज से मासूमियत के तकाजे उभरते हैं, हसरतों के साये नहीं।"
"यकीनन कमसिन होगी।"
"हर कुँवारी कमसिन होती है, यार मेरे।"
"क्यों मियाँ? देखने को तरस गये हो क्या?"
"नहीं भई, यहाँ तो अब कुँवारे जिस्म के तसव्वुर से ही बदन चटख जाता है। उसके बाद घर में जो है, उसी से गुजर हो जाती है।"
"मुझे तो लगता है कि मेरे ही हाथ की बनी ताजा नानखटाई खा कर गाती है।"
"नहीं मियाँ, इतनी कुरमुरी नहीं कि मुँह में डालते ही घुल जाये। ये तो मटके में रख कर ठंडाया हुआ जलजीरा है। चुस्कारे लेकर पीयो और देर तक जायका बना रहे।"
"मेरी मानो तो ऐसा कि बन्नो रानी सतरंगी लहरिये वाली चुन्नी का पल्ला उछालती तीजों की पींग का हुलारा लेने जाती हो,"
"मन्नू ते बादशाओ सुन के सबज रंग दीया कच्च दीयाँ चूड़िया दिस्स जाँदीया नें। ऐंज लगदा है कि जींवे कोई हल्की जई वीणी खनका के अख्खाँ अग्गों ओजल हो जाये।"
"भई हमने लोगों को गजल कहते भी देखा है और गजल गाते भी सुना है, लेकिन फकत आवाज में रंग, खुशबू और जायके का माहौल। यह हुनर तो बस बदरूनिसा को ही हासिल है।"
"शायरी और मौसिकी का क्या रिश्ता जोड़ा है इस आवाज ने? लगता है कि जैसे शायर की इजाजत लेकर उसका कलाम उसीको पेश करती हो।"
"शर्तिया कुँवारी होगी। आवाज से मासूमियत के तकाजे उभरते हैं, हसरतों के साये नहीं।"
"यकीनन कमसिन होगी।"
"हर कुँवारी कमसिन होती है, यार मेरे।"
"क्यों मियाँ? देखने को तरस गये हो क्या?"
"नहीं भई, यहाँ तो अब कुँवारे जिस्म के तसव्वुर से ही बदन चटख जाता है। उसके बाद घर में जो है, उसी से गुजर हो जाती है।"
•• गुजरात तहसील के रेडियो वाले घरों में शनिवार शाम को कुछ ज्यादा ही गहमा गहमी रहती। जिस मोहल्ले में जितने कम रेडियो, उतनी बड़ी रेडिओ मंडली। वकीलों, ठेकेदारों और सरकारी मुलाज़िमों के घरों में तो ज्यादातर घर के ही लोग होते, लेकिन रायसाहिब बदरीलाल के तिमंज़िले मकान की बैठक में जमा होने वाली रेडिओ मंडली पाँच–सात से शुरू होकर बीस–पचीस तक जा पहुँची थी। नीचे दूकान ऊपर मकान वाली ढक्की दरवाजा गली में शायद ही कोई घर ऐसा बचा हो जहाँ के मर्द शनिवार रात को बैठक न पहुँचते हों। मुनयारी, पसारी, लुहार, मोची, नाई, आढ़ती, दर्ज़ी, कसाई, सर्राफ सभी रहते थे उस गली में, सभी के पुश्तैनी मकान थे, तिमंज़िले तो सभी ने कर लिये थे। लेकिन किसी की मजाल न थी कि चौबारी छत भी अकेले कमरे से ढक ले।
"आस पास के मकानों को नंगा करना है क्या?" गली के बड्ढ़े बडेरे बरज देते। पूरे शहर की गलियाँ तंग होने लगी थीं, जिस के पास चार पैसे आ जाते, वही अपना चबूतरा चौड़ा करवा लेता। लेकिन ढक्की दरवाजा गली उतनी ही चौड़ी थी जितनी किले वालों ने बनवाई थी। तीन–तीन घुड़सवार बतियाते हुए एक साथ गुजर सकते थे। गली की औरतों को बुरका सँभालते हुए नुक्कड़ तक जाकर ताँगों की चादर लगी पिछली सीट पर उचक नहीं चढ़ना पड़ता था। पूरा का पूरा ताँगा सीधे मकानों के आगे आन खड़ा होता था और बिना "बचो, बचो" कहे मुड़ जाता था। सपाट टीले पर सिपहसिलारों का किला था और ढलान के कदमों मे बिछी ढक्की दरवाजा गली थी। किले की बुर्जियों से पहरेदार गली में बसे अपने मुलाज़िमों पर नजर भी रख लेते थे और सौदा–सुलफ लेने उन्हें दूर भी नहीं जाना पड़ता था। बुर्जियाँ गिर गईं। किला टूट बिखर कर खंडहर हो गया। सिपहसलारियाँ खत्म हुईं। लेकिन ढक्की दरवाजा गली में रहने वालों को खुद मुख्तयारी की आदत पड़ गई। जिसे जरूरत हो, उनके पास आये। उन्हें किसी की मोहताजी नहीं। जो कुछ कहीं और न मिले, उनके पास निकल ही आता। खरीद लो या उधार माँग लो। नकदी न हो तो किश्तों में चुका दो। लिखा पढ़ी न कर सको तो अँगूठा लगा दो। ढक्की दरवाजा गली के रायसाहिब बदरीलाल की पास पड़ोस के कई मोहल्लों में अच्छी–खासी साख थी। हर शाम ढले और छुट्टी के दिन कोई न कोई सलाह–मशविरा करने आ ही जाता। बड़ी कचहरी के सरकारी वकील से रोज का मिलना–जुलना था। खुद वकालत नहीं पढ़ी थी लेकिन नामी–गरामी वकीलों को एकाध पोशीदा दाँव–पेंच सिखा ही सकते थे। जमीन–जायदाद और कर्ज़ा–कुड़की के मामलात में खास दखल था उनका। कानूनी कार्रवाहियों की मियाद घटाने–बढ़ाने के कई टोटके थे उनके पास। चाहते तो छोटी–मोटी हेरा–फेरियाँ करने में ही साहूकार हो जाते। लेकिन रायसाहिब को लालच नहीं था। बस जरा शौकीन तबीयत थे।
समाप्त
Credit-
abhivyakti-hindi 
 
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