Saturday, February 22, 2025

जन्मदिवस विशेष (22 फरवरी), फ्रैंक पी. रामसे: गणित और दर्शन के विलक्षण प्रतिभा

            


     फ्रैंक प्लमटन रामसे (Frank Plumpton Ramsey) एक महान ब्रिटिश गणितज्ञ, दार्शनिक और अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने कम उम्र में ही अपने क्षेत्रों में क्रांतिकारी योगदान दिया। वे तर्क, संभावना, अर्थशास्त्र और गणितीय तर्कशास्त्र में अपनी अद्वितीय सोच के लिए जाने जाते हैं। उनका कार्य आधुनिक गणित और दर्शन के लिए एक महत्वपूर्ण आधारशिला साबित हुआ।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

फ्रैंक पी. रामसे का जन्म 22 फरवरी 1903 को कैंब्रिज, इंग्लैंड में हुआ था। उनके पिता आर्थर स्टैनली रामसे गणित के प्रोफेसर थे, जिससे फ्रैंक की गणित में रुचि प्रारंभ से ही बनी रही। उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज से शिक्षा प्राप्त की और बहुत ही कम उम्र में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। वे अत्यधिक प्रतिभाशाली थे और उनकी शिक्षा के दौरान ही उनकी गिनती प्रमुख विद्वानों में की जाने लगी।

गणित और रामसे थ्योरम

गणित के क्षेत्र में रामसे ने ग्राफ थ्योरी में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसे आज ‘रामसे थ्योरम’ (Ramsey Theorem) के रूप में जाना जाता है। इस प्रमेय का उपयोग संयोजन गणित (Combinatorics) और सैद्धांतिक कंप्यूटर विज्ञान में किया जाता है। यह प्रमेय इस सिद्धांत को प्रस्तुत करता है कि किसी बड़े संरचनात्मक सेट में कुछ संगठित उपसंरचनाएं अवश्य मिलेंगी।

उनका यह कार्य भविष्य में गेम थ्योरी, गणितीय तर्कशास्त्र और कंप्यूटर विज्ञान के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धांत बना। रामसे थ्योरम ने कॉम्बिनेटरिक्स (संयोजन गणित) को एक नया आयाम दिया और आज भी यह क्षेत्र इसके सिद्धांतों का उपयोग करता है।

दार्शनिक योगदान

रामसे न केवल एक महान गणितज्ञ थे, बल्कि उन्होंने दर्शनशास्त्र में भी गहरी रुचि ली। उन्होंने लुडविग विट्गेंस्टाइन के कार्यों की समीक्षा की और उनके तर्कशास्त्र को विकसित करने में सहायता की। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘Truth and Probability’ में उन्होंने संभाव्यता के आधारभूत सिद्धांतों को प्रस्तुत किया। उनकी इस विचारधारा ने आधुनिक विचारकों को बहुत प्रभावित किया।

उन्होंने भाषा, ज्ञान और तर्क पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया और उनके विचार आज भी एपिस्टेमोलॉजी और भाषा दर्शन में अध्ययन किए जाते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि किसी भी कथन की सच्चाई उसकी व्यावहारिक उपयोगिता पर निर्भर करती है, जिसे ‘प्रैग्मेटिक सत्य’ के रूप में जाना जाता है।

अर्थशास्त्र में योगदान

रामसे ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी गहरी छाप छोड़ी। उनकी ‘रामसे मॉडल ऑफ ऑप्टिमल सेविंग’ (Ramsey Model of Optimal Saving) आर्थिक सिद्धांतों में एक महत्वपूर्ण संकल्पना मानी जाती है। इस मॉडल का उपयोग आर्थिक वृद्धि और संसाधन वितरण से संबंधित शोधों में किया जाता है।

इसके अतिरिक्त, उन्होंने कराधान (Taxation) और कल्याणकारी अर्थशास्त्र (Welfare Economics) पर भी कार्य किया। उनकी ‘रामसे प्राइसिंग’ (Ramsey Pricing) थ्योरी बताती है कि प्राकृतिक एकाधिकार वाली कंपनियों को किस प्रकार मूल्य निर्धारण करना चाहिए ताकि सामाजिक कल्याण बना रहे और आर्थिक संतुलन बना रहे।

असमय निधन और विरासत

फ्रैंक रामसे का जीवन बहुत ही छोटा रहा। 26 वर्ष की आयु में, 19 जनवरी 1930 को उनका निधन हो गया। हालांकि उनका जीवनकाल संक्षिप्त था, लेकिन उन्होंने अपने कार्यों से गणित, दर्शन और अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में स्थायी छाप छोड़ी। उनका प्रभाव न केवल उनके समकालीन विद्वानों पर पड़ा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों ने भी उनके कार्यों से प्रेरणा ली।

उनके गणितीय प्रमेय, दार्शनिक विचार और आर्थिक सिद्धांत आज भी शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बने हुए हैं। उनके योगदान को देखते हुए, उन्हें बीसवीं सदी के सबसे प्रभावशाली विचारकों में से एक माना जाता है।

निष्कर्ष

फ्रैंक पी. रामसे एक बहुआयामी प्रतिभा थे, जिन्होंने गणित, दर्शन और अर्थशास्त्र में अमूल्य योगदान दिया। उनका कार्य आज भी इन क्षेत्रों में शोधकर्ताओं को नई दिशाएँ दिखाने का कार्य कर रहा है। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि गहरी सोच और समर्पण से कम समय में भी महान योगदान दिया जा सकता है। उनकी गणितीय थ्योरम, तर्कशास्त्र, और आर्थिक मॉडल आने वाले समय में भी विज्ञान और समाज के विकास में सहायक बने रहेंगे।

स्रोत:

  1. Sahotra Sarkar (2003), Ramsey, Frank Plumpton (1903–1930), Oxford Dictionary of National Biography

  2. Mellor, D. H. (1983), Frank Ramsey (1903–1930), Proceedings of the British Academy

  3. Keynes, J. M. (1933), Essays in Biography, Macmillan

  4. Misak, Cheryl (2020), Frank Ramsey: A Sheer Excess of Powers, Oxford University Press

जन्मदिवस विशेष (23 फरवरी), Dr. Agnes Arber

 

एग्नेस आर्बर: वनस्पति विज्ञान की प्रख्यात वैज्ञानिक

वैज्ञानिक जगत में एग्नेस आर्बर (Agnes Arber) एक सम्मानित नाम हैं, जिन्होंने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। वे न केवल एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक थीं, बल्कि उनकी लेखनी ने भी विज्ञान को अधिक व्यापक और समझने योग्य बनाया।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

एग्नेस आर्बर का जन्म 23 फरवरी 1879 को लंदन, इंग्लैंड में हुआ था। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और वहीं से वनस्पति विज्ञान में स्नातक और बाद में डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की। उनका झुकाव बचपन से ही विज्ञान की ओर था, जिसमें उनके माता-पिता की अहम भूमिका रही। उनके शिक्षक एडवर्ड अर्नेस्ट ने भी उनके वैज्ञानिक सोच को विकसित करने में सहायता की।

वैज्ञानिक योगदान

एग्नेस आर्बर ने पौधों की संरचना, विकास और कार्यप्रणाली पर गहन शोध किए। उनके अध्ययन मुख्य रूप से पौधों की आंतरिक संरचना और उनकी कार्यप्रणाली से जुड़े थे।

प्रमुख अनुसंधान

  1. पौधों की संरचनात्मक विशेषताएँ: उन्होंने पौधों की संरचना और उनके विकास को विस्तार से अध्ययन किया और उनकी विशेषताओं को समझाने में मदद की।

  2. वनस्पति विज्ञान में तुलनात्मक अध्ययन: उन्होंने विभिन्न पौधों की संरचना का तुलनात्मक अध्ययन कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नई जानकारियाँ दीं।

  3. पुस्तकों का लेखन: उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘The Natural Philosophy of Plant Form’ ने पौधों की संरचना और उनके विकास पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। इसके अलावा, उन्होंने ‘Herbals, Their Origin and Evolution’ नामक पुस्तक भी लिखी, जो ऐतिहासिक संदर्भ में वनस्पति विज्ञान के विकास को दर्शाती है।

  4. शारीरिक वनस्पति विज्ञान: उन्होंने पौधों की शारीरिक संरचना और उनके विकास में आने वाले परिवर्तनों को गहराई से समझा और उनके महत्व को स्पष्ट किया।

पुरस्कार और सम्मान

एग्नेस आर्बर को उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान मिले। वे रॉयल सोसाइटी की पहली महिला फेलो बनीं, जो विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी को दर्शाता है। उन्हें 1946 में लिनियन मेडल से भी सम्मानित किया गया, जो वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में दिया जाने वाला एक प्रतिष्ठित पुरस्कार है।

व्यक्तिगत जीवन और विरासत

एग्नेस आर्बर का जीवन विज्ञान और शोध के प्रति समर्पित था। वे न केवल एक वैज्ञानिक थीं बल्कि उन्होंने दर्शन और विज्ञान के आपसी संबंधों पर भी विचार किया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वनस्पति विज्ञान से जुड़ी दार्शनिक धारणाओं पर ध्यान केंद्रित किया।

निष्कर्ष

एग्नेस आर्बर ने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया और उनकी शोध पद्धति आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरित करती है। उनका कार्य न केवल विज्ञान के प्रति उनकी गहरी समझ को दर्शाता है, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी मार्गदर्शक बना रहेगा। उनके अध्ययन और लेखन ने वनस्पति विज्ञान को और अधिक समृद्ध किया, जिससे आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा मिलती रहेगी।

जन्मदिवस विशेष (21 फरवरी), डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर: भारतीय विज्ञान के जनक


        भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। वे एक प्रख्यात वैज्ञानिक, शिक्षाविद और शोधकर्ता थे, जिन्होंने भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्हें भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी का जनक भी कहा जाता है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर का जन्म 21 फरवरी 1894 को शाहपुर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का निधन बचपन में ही हो गया था, जिससे उनके जीवन में संघर्ष बढ़ गया। लेकिन उनकी माता ने उन्हें शिक्षा के प्रति प्रेरित किया। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से स्नातक किया और फिर इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

वैज्ञानिक योगदान

डॉ. भटनागर ने कोलायड (Colloid) रसायन विज्ञान के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अनुसंधान किए। उनके शोध कार्यों ने विज्ञान और उद्योग के बीच संबंधों को मजबूत किया। उन्होंने न केवल विज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं में योगदान दिया, बल्कि उनके अनुसंधान से व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में भी मदद मिली।

सीएसआईआर की स्थापना

डॉ. भटनागर का सबसे बड़ा योगदान काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) की स्थापना था। उन्होंने 1942 में सीएसआईआर की नींव रखी और इसके पहले महानिदेशक बने। उनके नेतृत्व में भारत में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना हुई, जिससे विज्ञान और उद्योग को बढ़ावा मिला।

अन्य प्रमुख योगदान

राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना: उन्होंने राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (NCL), राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (NPL) और केंद्रीय ईंधन अनुसंधान संस्थान (CFRI) जैसी प्रमुख प्रयोगशालाओं की स्थापना में योगदान दिया।
वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान को बढ़ावा: उन्होंने भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान को उद्योगों से जोड़कर इसे व्यावहारिक उपयोग में लाने की दिशा में काम किया।
शिक्षा और विज्ञान नीति: उन्होंने भारतीय विज्ञान नीति को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

पुरस्कार और सम्मान

डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर को उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। उन्हें 1954 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, उनके योगदान के सम्मान में ‘शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार’ की स्थापना की गई, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले वैज्ञानिकों को दिया जाता है।

निष्कर्ष

डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर भारतीय विज्ञान के अग्रदूत थे, जिन्होंने अपने शोध, नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमता से देश को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनका योगदान हमेशा भारतीय वैज्ञानिक समुदाय और राष्ट्र के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा।

Thursday, February 20, 2025

जन्मदिवस विशेष (20 फरवरी), रोहन सुनील गावस्कर

 रोहन सुनील गावस्कर, भारतीय क्रिकेट के महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर के पुत्र, का जन्म 20 फरवरी 1976 को कानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बाएं हाथ के बल्लेबाज और स्लो लेफ्ट-आर्म ऑर्थोडॉक्स गेंदबाज के रूप में उन्होंने क्रिकेट में अपना करियर बनाया।



घरेलू करियर: रोहन ने अपने प्रथम श्रेणी करियर की शुरुआत 1996-97 में बंगाल टीम के साथ की। बंगाल के लिए खेलते हुए उन्होंने 117 प्रथम श्रेणी मैचों में 44.19 की औसत से 6,938 रन बनाए, जिसमें 18 शतक और 34 अर्धशतक शामिल हैं। उनका सर्वोच्च स्कोर नाबाद 212 रन रहा। उन्होंने 2001-02 में बंगाल टीम की कप्तानी भी की।

अंतरराष्ट्रीय करियर: रोहन ने भारतीय टीम के लिए 2004 में वनडे क्रिकेट में पदार्पण किया। उन्होंने कुल 11 वनडे मैच खेले, जिसमें 18.87 की औसत से 151 रन बनाए। उनका सर्वोच्च स्कोर 54 रन था, जो जिम्बाब्वे के खिलाफ एडिलेड में बनाया गया था। गेंदबाजी में उन्होंने 1 विकेट हासिल किया।

अन्य पहलू: 2007 में, रोहन ने इंडियन क्रिकेट लीग (ICL) में शामिल होकर कोलकाता टाइगर्स का प्रतिनिधित्व किया। बाद में, 2009 में, बीसीसीआई ने उन्हें और अन्य खिलाड़ियों को आम माफी दी, जिससे वे आधिकारिक क्रिकेट में वापस आ सके। 2010 में, वे इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) में कोलकाता नाइट राइडर्स टीम का हिस्सा बने।

रोहन गावस्कर ने अपने क्रिकेट करियर के बाद कमेंट्री और विश्लेषण के क्षेत्र में भी योगदान दिया है, जहां वे अपने अनुभव और ज्ञान को साझा करते हैं।

एक तांत्रिक की रचनाये

मैं यहाँ पर एक अघोरी द्वारा लिखी हुई तंत्र से संबंधित घटनाओं को आपके लिए लेकर आया हूँ। ये सभी घटनाएँ काफी रोचक हैं। आपको इनको पढ़कर बहुत आनंद आएगा। प्रस्तुत की जा रही घटनाएँ किसी अन्य वेबसाइट से कॉपी की गई हैं, और इनका श्रेय मूल लेखक को जाता है।

प्रस्तुत की जा रही घटनाएँ काल्पनिक हैं या नहीं, इसका निर्णय पाठक स्वयं कर सकते हैं।

धन्यवाद।


Wednesday, February 19, 2025

19 फरबरी : आज का दिन इतिहास की नजर में

 आज, 19 फ़रवरी, भारतीय और विश्व इतिहास में कई महत्वपूर्ण घटनाओं के लिए जाना जाता है। आइए, इस दिन की प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर एक नज़र डालें:



महत्वपूर्ण घटनाएँ:

  • 1630: महाराष्ट्र के शिवनेरी दुर्ग में छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म हुआ, जिन्होंने मराठा साम्राज्य की स्थापना की और भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।

  • 1878: थॉमस एडीसन ने फोनोग्राफ का पेटेंट कराया, जो ध्वनि रिकॉर्डिंग और पुनरुत्पादन की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था।

  • 1915: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हुआ। वे एक समाज सुधारक और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख सदस्य थे।

  • 1986: सोवियत संघ ने मीर अंतरिक्ष स्टेशन का प्रक्षेपण किया, जो अंतरिक्ष अनुसंधान में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

  • 2019: पुलवामा हमले के बाद भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकवादी ठिकानों पर हवाई हमला किया, जिसे 'बालाकोट एयरस्ट्राइक' के नाम से जाना जाता है।

इन घटनाओं के माध्यम से, 19 फ़रवरी का दिन भारतीय और विश्व इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है।

Saturday, February 15, 2025

क्यूटनेस ओवरलोडेड

 कहानी- क्यूटनेस ओवरलोडेड



डॉ. स्मिता वैसे भी कोई कॉन्फ्रेंस, सेमिनार आदि नहीं छोड़ती थी. फिर इस बार तो कॉन्फ्रेंस उनके छोटे भाई के शहर में थी. मां से मिलने का यह सुनहरा अवसर वह भला कैसे छोड़ सकती थी? शादी के बाद से ही नीलेश और पल्लवी उसे बुला रहे हैं. पर आजकल हर कोई अपने काम में इतना मसरूफ़ है कि बिना काम कहीं जाने का व़क्त निकाल ही नहीं पाता. तभी तो पति निशांत ने भी साथ चलने से इंकार कर दिया था. “नहीं बाबा, तुम्हारी गायनाकोलॉजिस्ट मीट में मेरा क्या काम? मैं अपना क्लीनिक ही देखना पसंद करूंगा.” स्मिता का उत्साह इससे ज़रा भी कम नहीं हो पाया था. ‘मायका’ शब्द मात्र से स्त्रियों में भर जानेवाली ऊर्जा से वह भी अछूती नहीं थी. भाई-भाभी के लिए उपहार ख़रीदने के बाद उसने मां के लिए भी एक सुंदर-सी गरम शॉल ख़रीद ली थी. वज़न में हल्की, आरामदायक हल्के रंग की यह शॉल मां को अवश्य पसंद आएगी. 


कल्पना में शॉल ओढ़े सैर के लिए निकलती मां का चेहरा आंखों के सामने आया, स्मिता के चेहरे पर स्वतः ही स्मित मुस्कान बिखर गई. मां तो उसे देखकर ही उल्लासित हुई थीं, छोटे भाई नीलेश और नई भाभी पल्लवी ने भी उसे हाथों हाथ लिया, तो स्मिता का मायके आने का उत्साह द्विगुणित हो गया. नाश्ते में मां ने उसकी मनपसंद बेडमी पूरी बनाकर परोसी, तो स्मिता के मुंह में पानी भर आया. इससे पूर्व कि वह ढेर सारी पूरियां अपनी प्लेट में रख पाती, उसके मोबाइल पर कोई आवश्यक कॉल आ गई. वह मोबाइल लेकर थोड़ा दूर हटकर बतियाने लगी, पर उसकी नज़रें डायनिंग टेबल पर ही जमी थीं. मां उठकर अपने हाथों से नीलेश की प्लेट में पूरियां परोसने लगीं, तो नीलेश ने झटके से प्लेट हटा ली. “क्या कर रही हो मां? जानती तो हो मैं डायट पर हूं. पल्लवी मेरे लिए दो टोस्ट पर बटर लगा दो.” “ला, मैं लगा देती हूं. उसे नाश्ता करने दे. उसे भी तो ऑफिस निकलना है.” मां ने अपना नाश्ता छोड़कर उसके लिए टोस्ट पर बटर लगा दिया था. लेकिन ढेर सारा बटर देख नीलेश फिर भड़क उठा था. “इतना सारा बटर! मां तुम रहने दो. पल्लवी, मैंने तुम्हें लगाने को कहा था.” “हूं... हां!” सहमी-सी पल्लवी ने अपना दूध का ग्लास रख तुरंत दूसरे टोस्ट पर हल्का-सा बटर लगा दिया था और नीलेश की प्लेट में रख दिया था. 


तब तक स्मिता भी फोन पर वार्तालाप समाप्त कर डायनिंग टेबल पर आ चुकी थी. सब चुपचाप नाश्ता करते रहे. स्मिता ने चाहा पूरियों की तारीफ़ कर वह वातावरण को हल्का बना दे, पर मां का उतरा चेहरा देखकर उसने चुप रह जाना ही श्रेयस्कर समझा. शाम को जल्दी लौटने का आश्‍वासन देकर तीनों निकल गए थे. रात का खाना कुक ने ही बनाया था. सबने साथ बैठकर खाया. स्मिता ने खाने की तारीफ़ की, साथ ही मां के हाथ की उड़द दाल, चावलवाली तहरी खाने की इच्छा भी ज़ाहिर की. “पल्लवी, पता है मां साबूत उड़द और चावल की इतनी खिली-खिली तहरी बनाती हैं कि देखकर ही दिल ख़ुश हो जाता है. उसमें ढेर सारे घी वाला साबूत लाल मिर्च और जीरे का तड़का! उफ़्फ़! मेरे तो अभी से मुंह में पानी आने लगा. मैंने कई बार बनाने का प्रयास किया, पर वो मां वाला स्वाद नहीं ला पाई.” स्मिता पल्लवी को विस्तार से रेसिपी समझाने लगी. फिर अंत में यह और जोड़ दिया, “नीलेश को भी बहुत पसंद हेै यह डिश. क्यों नीलेश?” “हां बिल्कुल! बनाओ न मां!” मोबाइल पर व्यस्त नीलेश ने संक्षेप में सहमति दे दी थी. अगले दिन स्मिता को देर से जाना था, इसलिए वह अभी तक सो ही रही थी. कानों में नीलेश के ज़ोर से बोलने का स्वर पड़ा, तो उसकी आंख खुल गई. 


 “यह मेरे पसंदीदा शर्ट का क्या कबाड़ा कर दिया है पल्लवी तुमने? स़फेद को आसमानी कर दिया है. आजकल कौन नील लगाता है?” पल्लवी सकपकाई-सी खड़ी थी. तभी मां आ गईं, “अरे, तेरे सारे स़फेद कपड़ों पर कल मैंने नील लगाई थी. याद नहीं, तू कितनी गहरी नीलवाले कपड़े पहनता था? पूरे नीले ही करवा लेता था. यह तो मैंने बहुत हल्की लगाई है, ताकि ऑफिस में ख़राब न दिखे.” नीलेश ने झुंझलाहट में शर्ट पलंग पर फेंक दी थी और पल्लवी से आलमारी में से दूसरी शर्ट देने को कहा. मां निढाल-सी लौट आई थीं. उनकी बेचारगी देख स्मिता की आंखें गीली हो गई थीं. मां का हाथ अपने हाथों में ले वह कहे बिना नहीं रह सकी थी, “क्यों करती हो मां यह सब? जब किसी को आपकी, आपके काम की, आपकी भावनाओं की कद्र ही नहीं है...” “मैं नहीं करती बेटी! मेरी ममता मुझसे यह सब करवा लेती है. 


मैं तो उन लोगों की मदद करना चाहती हूं. मेरा आत्मसम्मान मुझे किसी पर बोझ बनकर रहने की इजाज़त नहीं देता. पर क्या करूं? सब उलट-पुलट हो जाता है.” “नीलेश-पल्लवी भी तुम्हें आराम देना चाहते हैं मां! घर में इतने नौकर-चाकर हैं तो सही. फिर अब तो पल्लवी भी है नीलेश की देखरेख को. आपको क्या ज़रूरत है सबकी फ़िक्र करने की?” स्मिता ने मां को थोथी सांत्वना दी थी. थोथी इसलिए, क्योंकि अपने आश्‍वासनों के प्रति वह स्वयं भी आश्‍वस्त नहीं थी. उसे अपना बचपन और मां-पापा का लाड़-दुलार याद आ रहा था. व़क्त के साथ-साथ रिश्तों के समीकरण इतने उलट-पुलट क्यों जाते हैं? माता-पिता के लिए अपने बच्चों की लापरवाहियों, ग़ैरज़िम्मेदाराना हरकतों को माफ़ या नज़रअंदाज़ करना कितना आसान होता है. नाराज़ या क्रोधित होने की बजाय वे उसमें भी बच्चों की मासूमियत खोज लेते हैं. 


लेकिन बड़े होने पर वे ही बच्चे बुज़ुर्ग माता-पिता की अज्ञानतावश की गई ग़लतियों पर खीझ जाते हैं, ग़ुस्सा करने लगते हैं. हमारी सहनशीलता इतनी कम क्यों हो गई है? यदि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है, तो बुढ़ापे की नादानियों में हमें मासूमियत नज़र क्यों नहीं आती? जो कुछ उनके लिए इतना सहज, सरल था हमारे लिए इतना मुश्किल क्यों है? बे्रकफास्ट टेबल पर नीलेश ने बताया कि रात के खाने पर उसने अपने कुछ विदेशी क्लाइंट्स को आमंत्रित किया है. उनके लिए सी फूड, मैक्सिकन आदि बाहर से आ जाएगा. “पल्लवी, तुम थोड़ा ड्रिंक्स, क्रॉकरी, सजावट आदि देख लेना. मैं शायद उन लोगों के साथ ही घर पहुंचूं. दीदी, आप भी हमें जॉइन करेंगी न?” “अं... टाइम पर आ गई, तो मिल लूंगी सबसे. थोड़ा-बहुत साथ खा भी लूंगी, पर वैसे मुझे यह सब ज़्यादा पसंद नहीं है. मां, आपके लिए जो बनेगा, मैं तो वही खाऊंगी.” नीलेश पल्लवी को और भी निर्देश देता रहा. नाश्ता समाप्त कर उठने तक पार्टी की समस्त रूपरेखा तैयार हो चुकी थी. स्मिता ने कहा, वह जल्दी लौटने का प्रयास करेगी, ताकि पल्लवी की मदद कर सके. किंतु लौटते-लौटते उसे देर हो गई थी. घर पहुंचकर पता चला कि पल्लवी ख़ुद भी थोड़ी देर पहले ही लौटी है. ऑफिस में कुछ काम आ गया था. “पर तैयारी तो सब हो गई दिखती है?” चकित-सी स्मिता ने सब ओर नज़रें दौड़ाते हुए हैरानी ज़ाहिर की, तो कृतज्ञता से अभिभूत पल्लवी ने रहस्योद्घाटन किया. “यह सब मम्मीजी ने करवाया है. 


मैं तो देर हो जाने के कारण ख़ुद घबराई-सी घर पहुंची थी, पर यहां आकर देखा, तो सब तैयार मिला.” “सब मेरे सामने ही तो तय हुआ था. तुम्हें आते नहीं देखा, तो मैंने सोचा मैं ही करवा लूं, वरना नीलेश आते ही तुम पर सवार हो जाएगा. बचपन से ही थोड़ा अधीर है वह! तुम उसकी बातों का बुरा मत माना करो... हां, कुछ कमी रह गई हो, तो तुम ठीक कर लो.” “कोई कमी नहीं है मम्मीजी. सब एकदम परफेक्ट है! इतना अच्छा तो मैं भी नहीं कर सकती थी.” पल्लवी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की, तो मां एकदम बच्चों की तरह उत्साहित हो उठीं. “तुम लोग अब तैयार हो जाओ. नीलेश मेहमानों को लेकर आता ही होगा.” जैसी कि उम्मीद थी, पार्टी बहुत अच्छी रही. सबके कहने पर मां एक बार बैठक में आकर मेहमानों से मिल लीं. बाकी समय वे अंदर ही व्यवस्था देखती रहीं. मेहमानों को विदा कर जब तीनों घर में प्रविष्ट हुए, तो देसी घी के तड़के की सुगंध से घर महक रहा था. “वॉव, लगता है मेरी पसंदीदा तहरी बनी है.” स्मिता सुगंध का आनंद लेती हुई डायनिंग टेबल तक पहुंच गई. उसका अनुमान सही था. गरमागरम तहरी सजाए मां उसी का इंतज़ार कर रही थीं. “तुमने तो खा लिया होता मां. तुम क्यों भूखी रहीं? मैंने तो मेहमानों के संग थोड़ा खा लिया था.” कहते हुए स्मिता ने प्लेट में तहरी परोसकर पहला चम्मच मां के मुंह में और दूसरा चम्मच अपने मुंह में रख लिया.


“वाह, कब से इस स्वाद के लिए तरस रही थी. नीलेश, आ चख. तुझे भी तो यह बहुत पसंद है.” स्मिता ने आग्रह किया, तो नीलश ने एक चम्मच भरकर उसी प्लेट से खाना आरंभ कर दिया. एक, दो, तीन... नीलेश को गपागप खाते देख स्मिता चिल्ला पड़ी. “तू अलग ही ले ले भाई.” नीलेश सचमुच अलग प्लेट भरकर खाने बैठ गया. “आपने अभी तो भरपेट खाना खाया था.” पल्लवी के मुंह से बेसाख़्ता निकल गया. “लो, तुम भी टेस्ट करो. इसके लिए तो मैं बचपन में भी पेट में अलग जगह रखता था.” नीलेश को स्पीड से खाता देख पल्लवी के मन का डर ज़ुबां पर आ गया. “आप लोगों को कम न पड़ जाए. और कुछ बना दूं?” “अरे, तू अपने लिए परोस ना. मैंने बहुत सारी बनाई है. कम होगी, तो मैं बना दूंगी.” मां ने पल्लवी को जबरन साथ खाने बैठा लिया. “मां, याद है बचपन में एक बार नीलेश सारी तहरी चट कर गया था. तुम दोबारा बनाने उठीं, तो वह तुम्हारी मदद के लिए रसोई में आ गया था और फिर जल्दबाज़ी में दाल-चावल के डिब्बे ही उलट डाले थे.” “यह नटखट तो हमेशा ऐसे ही काम बढ़ाता था. 


मेरा किशन कन्हैया!” मां ने लाड़ से बेटे को देखा. “जाले उतारने में मदद करने आता, तो एकाध बल्ब या ट्यूबलाइट फूटना तय था. एक बार तो टीवी स्क्रीन ही तोड़ डाली थी.” मां ख़ूब रस ले-लेकर बता रही थीं. “क्या? फिर तो ख़ूब मार पड़ी होगी इन्हें?” पल्लवी बोल पड़ी. “नहीं. मारता तो कोई भी नहीं था. पापा ने डांटा अवश्य था और मां ने तो हमेशा की तरह प्यार से समझा भर दिया था.” कहने के बाद अपने ही शब्दों पर ग़ौर करता नीलेश कुछ सोचने लगा था. “एक बार तो इसने मां की महंगी सिल्क साड़ी पानी में डुबोकर सत्यानाश कर डाली थी.” स्मिता ने याद दिलाया. “दरअसल, पार्टी में मैं इसे गोद में बिठाकर खाना खिला रही थी. इससे मेरी साड़ी पर कुछ गिर गया. घर लौटकर मैंने साड़ी उतारकर ड्राइक्लीन के लिए रख दी. इसने चुपके से उसे पानी में भिगो दिया. पूरी साड़ी ही गई. 


बेचारा मासूम नेकी करना चाहता और नुक़सान हो जाता.” “काहे का मासूम! बदमाश था.” स्मिता बोली. “तू बड़ी दूध की धुली थी! रोज़ रसोई में रोटी बनाने के लिए खिलौने के चौका-बेलन लेकर आ जाती और मेरा दिमाग़ खाती.” मां ने याद दिलाया. “और क्या? एक बोरी आटा, तो बिगाड़ा ही होगा इसने!” नीलेश कहां चूकनेवाला था. “किसी ने कुछ नहीं बिगाड़ा. उन छोटे-छोटे शरारती पलों ने तो रिश्तों को जोड़ने का काम किया. अपनत्व जगाकर प्यार के तंतुओं को जोड़े रखा. समय की आड़ में जब रिश्तों के महल ढहने लगते हैं, तब अपनत्वभरे उन पलों की स्मृति ही हमारा संबल बन जाती है.” भावनाओं में बहती मां उन पलों को याद कर एकाएक बहुत प्रसन्न और संतुष्ट नज़र आने लगी थीं. 


दो दिनों के अल्प प्रवास में स्मिता के लिए ये सबसे यादगार सुकूनमय पल थे और सबसे भव्य दावत भी. अपने शहर लौटकर, तो वह फिर आपाधापीभरी ज़िंदगी में व्यस्त हो गई थी. नीलेश का नाराज़गी भरा फोन आया, तो वह चौंकी, “आपको कुछ वीडियोज़ भेजे थे. तब से आपके कमेंट का इंतज़ार कर रहा हूं.” “ओह, देखती हूं.” स्मिता ने वीडियो देखने आरंभ किए, तो देखती ही रह गई. मॉल में हिचकिचाती मां को हाथ पकड़कर एस्केलेटर चढ़ाते नीलेश और पल्लवी, मां का विस्फारित नेत्रों से चारों ओर ताकना उसे अंदर तक गुदगुदा गया... यह मेरा धूप में सूखता स्मार्टफोन! चिकनाई हटाने के लिए मां ने डिटर्जेंट से धोकर सुखा दिया था... और यह उदास मां! चार दिनों से अनजाने में हुए इस नुक़सान का मातम मना रही हैं. मैं और पल्लवी समझा-समझाकर थक गए. ‘ओह! बेचारी भोली मां.’ स्मिता बुदबुदा उठी. एक अन्य वीडियो में मां बेहद डरते हुए फुट मसाजर पर पांव रखे हुए थी


नीलेश और पल्लवी ने एक-एक पांव जबरन पकड़ रखा था. थोड़ी देर में वे रिलैक्स होती नज़र आईं, तो स्मिता के होंठों पर मुस्कुराहट और आंखों में नमी तैर गई. उसके लिए समय थम-सा गया था. इससे पूर्व कि उसका अधीर भाई उसे दोबारा कमेंट के लिए कॉल करे, स्मिता की उंगलियां मोबाइल पर थिरकने लगी थीं. ‘क्यूटनेस ओवरलोडेड...’ इतने क्यूट कमेंट ने नीलेश की आंखें नम कर दी थीं.-संगीता

Thursday, February 13, 2025

घोंसले के पंछी

 आदित्य गुमसुम से खड़े थे. पत्नी की बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. वे शब्दों पर जोर देते हुए बोले, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो ऋचा?’’


‘‘पहले मुझे विश्वास नहीं था लेकिन मैं एक नारी हूं, जिस उम्र से अंकिता गुजर रही है उस उम्र से मैं भी गुजर चुकी हूं. उस के रंगढंग देख कर मैं समझ गई हूं कि दाल में कुछ काला है.’’



आदित्य की आंखों में एक सवाल था, ‘वह कैसे?’


ऋचा उन की आंखों की भाषा समझ गई. बोली, ‘‘सुबह घर से जल्दी निकलती है, शाम को देर से घर आती है. पूछने पर बताया कि टाइपिंग क्लास जौइन कर ली है. इस की उसे जरूरत नहीं है. उस ने इस बारे में हम से पूछा भी नहीं था. घर में भी अकेले रहना पसंद करती है, गुमसुम सी रहती है. जब देखो, अपना मोबाइल लिए कमरे में बंद रहती है.’’


‘‘उस से बात की?’’


‘‘अभी नहीं, पहले आप को बताना उचित समझा. लड़की का मामला है. जल्दबाजी में मामला बिगड़ सकता है. एक लड़का हम खो चुके हैं, अब लड़की को खो देने का मतलब है पूरे संसार को खो देना.’’


आदित्य विचारों के समुद्र में गोता लगाने लगे. यह कैसी हवा चली है. बच्चे अपने मांबाप के साए से दूर होते जा रहे हैं. वयस्क होते ही प्यार की डगर पर चल पड़ते हैं, फिर मांबाप की मरजी के बगैर शादी कर लेते हैं. जैसे चिडि़या का बच्चा पंख निकलते ही अपने जन्मदाता से दूर चला जाता है, अपने घोंसले में कभी लौट कर नहीं आता, उसी प्रकार आज की पीढ़ी के लड़के तथा लड़कियां युवा होने से पहले ही प्यार के संसार में डूब जाते हैं. अपनी मरजी से शादी करते हैं और अपना घर बसा कर मांबाप से दूर चले जाते हैं.


आदित्य और ऋचा के एकलौते पुत्र ने भी यही किया था. आज वे दोनों अपने बेटे से दूर थे और बेटा उन की खोजखबर नहीं लेता था. इस में गलती किस की थी? आदित्य की, उन की पत्नी की या उन के बेटे की कहना मुश्किल था.


आदित्य ने पहले ध्यान नहीं दिया था, इस के बारे में सोचा तक नहीं था परंतु आज जब उन की एकलौती बेटी भी किसी के प्यार में रंग चुकी है, किसी के सपनों में खोई है, तो वे विगत और आगत का विश्लेषण करने पर विवश हैं.


प्रतीक एम.बी.ए. कर चुका था. बेंगलूरु की एक बड़ी कंपनी में मैनेजर था. एम.बी.ए. करते समय ही उस का एक लड़की से प्रेम हुआ था. तब तक उस ने घर में बताया नहीं था. नौकरी मिलते ही मांबाप को अपने प्रेम से अवगत कराया. आदित्य और ऋचा को अच्छा नहीं लगा. वह उन का एकलौता बेटा था. उन के अपने सपने थे. हालांकि वे आधुनिक थे, नए जमाने के चलन से भी वाकिफ थे परंतु भारतीय मानसिकता बड़ी जटिल होती है.


हम पढ़लिख कर आधुनिक बनने का ढोंग करते हैं, नए जमाने की हर चीज अपना लेते हैं, परंतु हमारी मानसिकता कभी नहीं बदलती. हमारे बच्चे किसी के प्रेम में पड़ें, वे प्रेमविवाह करना चाहें, हम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते. अपनी जवानी में हम भी वही करते हैं या करना चाहते हैं परंतु हमारे बच्चे जब वही सब करने लगते हैं, तो सहन नहीं कर पाते हैं. उस का विरोध करते हैं.


प्रतीक उन का एकलौता बेटा था. वे धूमधाम से उस की शादी करना चाहते थे. वे उसे कामधेनु गाय समझते थे. उस की शादी में अच्छा दहेज मिलता. इसी उम्मीद में अपने एक रिश्तेदार से उस की शादी की बात भी कर रखी थी. मामला एक तरह से पक्का था. मांबाप यहीं पर गलती कर जाते हैं. अपने जवान बच्चों के बारे में अपनी मरजी से निर्णय ले लेते हैं. उन को इस से अवगत नहीं कराते. बच्चों की भावनाओं का उन्हें खयाल नहीं रहता. वे अपने बच्चों को एक जड़ वस्तु समझते हैं, जो बिना चूंचपड़ किए उन की हर बात मान लेंगे. परंतु जब बच्चे समझदार हो जाते हैं तब वे अपने जीवन के बारे में वे खुद निर्णय लेना पसंद करते हैं. वे अपना जीवन अपने तौर पर जीना चाहते हैं.


जब प्रतीक ने अपने प्यार के बारे में उन्हें बताया तो उन के कान खड़े हुए. चौंकना लाजिमी था. बेटे पर वे अपना अधिकार समझते थे. आदित्य और ऋचा ने पहले एकदूसरे की तरफ देखा, फिर प्रतीक की तरफ. वह एक हफ्ते की छुट्टी ले कर आया था. मांबाप से अपनी शादी के बारे में बात करने के लिए. प्रेम उस ने अवश्य किया था परंतु वह उन की सहमति से शादी करना चाहता था. अगर वे मान जाते तो ठीक था, अगर नहीं तब भी उस ने तय कर रखा था कि अपनी पसंद की लड़की से ही शादी करेगा. जिस को प्यार किया था, उसे धोखा नहीं देगा. मांबाप माने या न मानें.


ऋचा ने ही बात का सिरा पकड़ा था, ‘‘परंतु बेटे, हम ने तो तुम्हारी शादी के बारे में कुछ और ही सोच रखा है.’’


‘‘अब वह बेकार है. मैं ने अपनी पसंद की लड़की देख ली है. वह मेरे अनुरूप है.


हम दोनों ने एकसाथ एम.बी.ए. किया था. अब साथ ही नौकरी भी कर रहे हैं, साथ ही जीवन व्यतीत करेंगे.’’


‘‘परंतु हमारे सपने…’’ ऋचा ने प्रतिवाद करने की कोशिश की परंतु प्रतीक की दृढ़ता के सामने वह कमजोर पड़ गईं. ऋचा की आवाज में कोई दम नहीं था. उसे लगा, वह हार जाएगी.


‘‘मम्मी, आप समझने की कोशिश कीजिए. बच्चे ही मांबाप का सपना होते हैं. अगर मैं खुश हूं तो आप के सपने साकार हो जाएंगे, वरना सब बेकार है.’’


‘‘बेकार तो वैसे भी सब कुछ हो चुका है. मैं बंसलजी को क्या मुंह दिखाऊंगा?’’ आदित्य ने पहली बार मुंह खोला, ‘‘उन के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार हैं. वे भी अलगथलग पड़ जाएंगे.’’


‘‘कोई किसी से अलग नहीं होता. आप धूमधाम से शादी आयोजित करें. रिश्तेदार 2 दिन बातें बनाएंगे, फिर भूल जाएंगे. प्रेमविवाह अब असामान्य नहीं रहे,’’ प्रतीक ने बहुत धैर्य से अपनी बात कही.


‘‘बेटे, तुम नहीं समझोगे. हम वैश्य हैं और हमारे समाज ने इस मामले में आधुनिकता की चादर नहीं ओढ़ी है. कितने लोग तुम्हारे लिए भागदौड़ कर रहे हैं. अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहते हैं. जिस दिन पता चलेगा कि तुम ने गैर जाति की लड़की से शादी कर ली है, वे हमें समाज से बहिष्कृत कर देंगे. तुम्हारी छोटी बहन की शादी में तमाम अड़चनें आएंगी.’’


‘‘उस का भी प्रेमविवाह कर देना,’’ प्रतीक ने सहजता से कह दिया. परंतु आदित्य और ऋचा के लिए यह सब इतना सहज नहीं था.


‘‘बेटे, एक बार तुम अपने निर्णय पर पुनर्विचार करो. शायद तुम्हारा निश्चय डगमगा जाए. हम उस से सुंदर लड़की तुम्हारे लिए ढूंढ़ कर लाएंगे.’’


ये भी पढ़ें- बेईमानी का नतीजा: क्या हुआ बाप और बेटे के साथप्रतीक हंसा, ‘‘मम्मी, यह मेरा आज का फैसला नहीं है. पिछले 3 सालों से हम दोनों का यही फैसला है. अब यह बदलने वाला नहीं. आप अपने बारे में बताएं. आप हमारी शादी करवाएंगे या हम स्वयं कर लें.’’


किसी ने प्रतीक की बात का जवाब नहीं दिया. वे अचंभित, भौचक और ठगे से बैठे थे. वे सभ्य समाज के लोग थे. लड़ाईझगड़ा कर नहीं सकते थे. बातों के माध्यम से मामले को सुलझाने की कोशिश की परंतु वे दोनों न तो प्रतीक को मना पाए, न प्रतीक के निर्णय से सहमत हो पाए. प्रतीक अगले दिन बेंगलूरु चला गया. बाद में पता चला, उस ने न्यायालय के माध्यम से अपनी प्रेमिका से शादी कर ली थी.


वे दोनों जानते थे कि प्रतीक ने भले अपनी मरजी से शादी की थी. परंतु वह उन के मन से दूर नहीं हुआ था. बस उन का अपना हठ था. उस हठ के चलते अभी तक बेटे से संपर्क नहीं किया था. बेटे ने पहले एकदो बार फोन किया था. आदित्य और ऋचा ने उस से बात की थी, हालचाल भी पूछा परंतु उस को दिल्ली आने के लिए कभी नहीं कहा. फिर बेटे ने उन को फोन करना बंद कर दिया.


अब शायद वह हठ टूटने वाला था. अंकिता के साथ वह पहले वाली गलती नहीं दोहराना चाहते थे.


आदित्य ने शांत भाव से कहा, ‘‘ऋचा, हमें बहुत समझदारी से काम लेना होगा. लड़की का मामला है. प्रेम के मामले में लड़कियां बहुत नासमझी और भावुकता से काम लेती हैं. अगर उन्हें लगता है कि मांबाप उन के प्रेम का विरोध कर रहे हैं, तो बहुत गलत कदम उठा लेती हैं. या तो वे घर से भाग जाती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं. हमें ध्यान रखना है कि अंकिता ऐसा कोई कदम न उठा ले.’’


ऋचा बेचैन हो गई, ‘‘क्या करें हम?’’


‘‘कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, बस उस से बात करो. उस की सारी बातें ध्यान से सुनो. उस के मन को समझने का प्रयास करो. शायद हम उस की मदद कर सकें. अगर वह समझ गई तो बहकने से बच जाएगी. उस के पैर गलत रास्ते पर नहीं पड़ेंगे. ये रास्ते बहुत चिकने होते हैं. फिसलने में देर नहीं लगती.’’


‘‘ठीक है,’’ ऋचा ने आश्वस्त हो कर कहा.


ऋचा ने देर नहीं की. जल्दी ही मौका निकाला. अंकिता से बात की. वह अपने कमरे में थी. ऋचा ने कमरे में घुसते ही पूछा, ‘‘बेटा, क्या कर रही हो?’’


अंकिता हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वह बिस्तर पर लेटी मोबाइल पर किसी से बातें कर रही थी. अंकिता के चेहरे के भाव बता रहे थे, जैसे वह चोरी करते हुए पकड़ी गई थी. ऋचा सब समझ गई, परंतु उस ने धैर्य से कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’’


अंकिता बी.ए. के दूसरे साल में थी.


‘‘ठीकठाक चल रही है,’’ अंकिता ने अपने को संभालते हुए कहा. उस की आंखें फर्श की तरफ थीं.


वह मां की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी.


अंकिता जिन मनोभावों से गुजर रही थी, ऋचा समझ सकती थी. उस ने बेटी को पलंग पर बैठाते हुए कहा, ‘‘बैठो और मेरी बात ध्यान से सुनो.’’


वह भी बेटी के साथ पलंग पर एक किनारे बैठ गई. उसे लग रहा था किसी लागलपेट की जरूरत नहीं, मुझे सीधे मुद्दे पर आना होगा.


अंकिता का हृदय तेजी से धड़क रहा था. पता नहीं क्या होने वाला था? मम्मी क्या कहेंगी उस से? उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था परंतु उस के मन में अपराधबोध था. मम्मी ने उसे फोन करते हुए देख लिया था.


ऋचा ने सीधे वार किया, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी मनोदशा समझ रही हूं. मैं तुम्हारी मां हूं. इस उम्र में सब को प्रेम होता है,’’ प्रेम शब्द पर ऋचा ने अधिक जोर दिया, ‘‘तुम्हारे साथ कुछ नया नहीं हो रहा है. परंतु बेटी, इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. बाद में लड़कियों के पास बदनामी के सिवा कुछ नहीं बचता. वे बदनामी का दाग ले कर जीती हैं और मन ही मन घुलती रहती हैं.’’


अंकिता का दिल और जोर से धड़क उठा.


‘‘बेटी, अगर तुम्हारे साथ ऐसा कुछ हो रहा है, तो हमें बताओ. हम नहीं चाहते तुम्हारे कदम गलत रास्ते पर पड़ें. तुम नासमझी में कुछ ऐसा न कर बैठो, जो तुम्हारी बदनामी का सबब बने. अभी तुम्हारी पढ़ाई की उम्र है लेकिन यदि तुम्हारे साथ प्रेम जैसा कोई चक्कर है, तो हम शादी के बारे में भी सोच सकते हैं. तुम खुल कर बताओ, क्या वह लड़का तुम्हारे साथ शादी करना चाहता है? वह तुम को ले कर गंभीर है या बस खिलवाड़ करना चाहता है.’’


अंकिता सोचने लगी पर उस के मन में दुविधा और शंका के बादल मंडरा रहे थे.


बताए या न बताए. मम्मी उस के मन की बात जान गई हैं. कहां तक छिपाएगी? नहीं बताएगी तो उस पर प्रतिबंध लगेंगे. उस ने आगे आने वाली मुसीबतों के बारे में सोचा. उसे लगा कि मां जब इतने प्यार और सहानुभूति से पूछ रही हैं, तो उन को सब कुछ बता देना ही उचित होगा.


अंकिता खुल गई और धीरेधीरे उस ने मम्मी को सारी बातें बता दीं. गनीमत थी कि अभी तक अंकिता ने अपना कौमार्य बचा कर रखा था. लड़के ने कोशिश बहुत की थी, परंतु वह उस के साथ होटल जाने को तैयार नहीं हुई. डर गई थी, इसलिए बच गई. मम्मी ने इतमीनान की गहरी सांस ली और बेटी को सांत्वना दी कि वह सब कुछ ठीक कर देंगी. अगर लड़का तथा उस के घर वाले राजी हुए तो इसी साल उस की शादी कर देंगे.


अंकिता ने बताया था कि वह अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के के साथ प्यार करती है. उस के घरपरिवार के बारे में वह बहुत कम जानती है. वे दोनों बस प्यार के सुनहरे सपने देख रहे हैं. बिना पंखों के हवा में उड़ रहे थे. भविष्य के बारे में अनजान थे. प्रेम की परिणति क्या होगी, इस के बारे में सोचा तक नहीं था. वे बस एकदूसरे के प्रति आसक्त थे. यह शारीरिक आकर्षण था, जिस के कारण लड़कियां अवांछित विपदाओं का शिकार होती हैं.


ऋचा ने आदित्य को सब कुछ बताया. मामला सचमुच गंभीर था. अंकिता अभी नासमझ थी. उस के विचारों में परिपक्वता नहीं थी. उस की उम्र अभी 20 साल थी. वह लड़का भी इतनी ही उम्र का होगा. दोनों का कोई भविष्य नहीं था. वे दोनों बरबादी की तरफ बढ़ रहे थे. उन्हें संभालना होगा.


स्थिति गंभीर थी. ऋचा और आदित्य का चिंतित होना स्वाभाविक था. परंतु ऋचा और आदित्य को कुछ नहीं करना पड़ा. मामला अपनेआप सुलझ गया. संयोग उन का साथ दे रहा था. समय रहते अंकिता को अक्ल आ गई थी. उस की मम्मी की बातों का उस पर ठीक असर हुआ था.


 अंकिता ने जब शिवम को बताया कि उस की मम्मी को उस के प्रेम के बारे में सब पता चल गया है तो वह घबरा गया.


‘‘इस में घबराने की क्या बात है? मम्मी ने तुम्हारे डैडी का फोन नंबर व पता मांगा है. वह तुम्हारे घर वालों से हमारी शादी की बात करना चाहती हैं.’’


‘‘अरे मर गए, क्या तुम्हारे पापा को भी पता है?’’ उस के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.


‘‘जरूर पता होगा. मम्मी ने बताया होगा उन को. परंतु तुम इतना परेशान क्यों हो रहे हो? हम एकदूसरे से प्रेम करते हैं, शादी करने में क्या हरज है? कभी न कभी करते ही, कल के बजाय आज सही,’’ अंकिता बहुत धैर्य से यह सब कह रही थी.


‘‘अरे, तुम नहीं समझतीं. यह कोई शादी की उम्र है. मेरे डैडी जूतों से मेरी खोपड़ी गंजी कर देंगे. शादी तो दूर की बात है,’’ वह हाथ मलते हुए बोला.


‘‘अच्छा,’’ अंकिता की अक्ल ठिकाने आ रही थी. वह समझने का प्रयास कर रही थी. बोली, ‘‘तुम मुझ से प्रेम कर सकते हो तो शादी क्यों नहीं. प्रेम मांबाप से पूछ कर तो किया नहीं था. अगर वे हमारी शादी के लिए तैयार नहीं होते, तो शादी भी उन से बिना पूछे कर लो. आखिर हम बालिग हैं.’’


‘‘क्या बकवास कर रही हो, शादी कैसे कर सकते हैं?’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘अभी तो हम पढ़ रहे हैं. मांबाप से पूछे बगैर हम इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकते हैं?’’


‘‘अच्छा, मांबाप से पूछे बगैर तुम जवान कुंआरी लड़की को बरगला सकते हो. उस को झूठे प्रेमजाल में फंसा सकते हो. शादी का झांसा दे कर उस की इज्जत लूट सकते हो. यह सब करने के लिए तुम बालिग हो परंतु शादी करने के लिए नहीं,’’ वह रोंआसी हो गई.


उसे मम्मी की बातें याद आ गईं. सच कहा था उन्होंने कि इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. शिवम भी तो उस के साथ यही कर रहा था. समय रहते उस की मम्मी ने उसे सचेत कर दिया था. वह बच गई. अगर थोड़ी देर होती तो एक न एक दिन शिवम उस की इज्जत जरूर लूट लेता. कहां तक अपने को बचाती. वह तो उस के लिए पागल थी.


शिवम इधरउधर ताक रहा था. अंकिता ने एक प्रयास और किया, ‘‘तुम अपने घर का पता और फोन नंबर दो. तुम्हारे मम्मीडैडी से पूछ तो लें कि वे इस रिश्ते के लिए राजी हैं या नहीं.’’


‘‘क्या शादीशादी की रट लगा रखी है,’’ वह दांत पीस कर बोला, ‘‘हम कालेज में पढ़ने के लिए आए हैं, शादी करने के लिए नहीं.’’


‘‘नहीं, प्यार करने के लिए…’’ अंकिता ने उस की नकल की. वह भी दांत पीस कर बोली, ‘‘तो चलो, नाचेगाएं और खुशियां मनाएं,’’ अब उस की आवाज में तल्खी आ गई थी, ‘‘कमीने कहीं के, तुम्हारे जैसे लड़कों की वजह से ही न जाने कितनी लड़कियां अपनी इज्जत बरबाद करती हैं. मैं ही


बेवकूफ थी, जो तुम्हारे फंदे में फंस गई. थू है तुम पर.. भाड़ में जाओ. सब कुछ खत्म हो गया. अब कभी मेरे सामने मत पड़ना. गैरत हो तो अपना काला मुंह ले कर मेरे सामने से चले जाओ.’’


उस दिन शाम को अंकिता जल्दी घर पहुंच गई. बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ था. ऋचा और आदित्य ने भेदभरी नजरों से एकदूसरे की तरफ देखा. अंकिता चुपचाप अपने कमरे में चली गई थी. आदित्य ने ऋचा को इशारा किया. वह पीछेपीछे अंकिता के कमरे में पहुंची. आदित्य भी बाहर आ कर खड़े हो गए थे.


‘‘आज बहुत जल्दी आ गईं बेटी,’’ ऋचा अंकिता से पूछ रही थी.


‘‘हां मम्मी, आज मैं अपने मन का बोझ उतार कर आई हूं. बहुत हलका महसूस कर रही हूं,’’ फिर उस ने एकएक बात मम्मी को बता दी.


मम्मी ने उसे गले से लगा लिया. उसे पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हारी जैसी बेटी हर मांबाप को मिले.’’


‘‘मम्मी यह सब आप की समझदारी की वजह से हुआ है. समय रहते आप ने


मुझे संभाल लिया. मैं आप की बात समझ गई और पतन के गर्त में जाने से बच गई. आप थोड़ा सी देर और करतीं तो मेरी बरबादी हो चुकी होती. मैं आप से वादा करती हूं कि मन लगा कर पढ़ाई करूंगी. आप की नसीहत और मार्गदर्शन से एक अच्छी बेटी बन कर दिखाऊंगी.’’


‘‘हां बेटी, तुम्हारे सिवा हमारा और कौन है? तुम चली जातीं तो हमारे जीवन में क्या बचता?’’


‘‘मम्मी, ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं आप के साथ हूं और भैयाभाभी भी तो हैं.’’


ऋचा ने अफसोस से कहा, ‘‘वे अब हमारे कहां रहे? हम ने एकदूसरे को नहीं समझा और वे हम से दूर हो गए.’’


‘‘ऐसा नहीं है मम्मी, वे पहले भी हमारे थे और आज भी हमारे हैं.’’


‘‘ये क्या कह रही हो तुम?’’


‘‘मम्मी, मैं आप को राज की बात बताती हूं. भैया और भाभी से मैं रोज बात करती हूं. भाभी खुद फोन करती हैं. मैं ने उन्हें देखा नहीं है परंतु वे बातें बहुत प्यारी करती हैं. वे हम सब को देखना चाहती हैं. भैया तो एक दिन भी बिना मुझ से बात किए नहीं रह सकते. वे और भाभी यहां आना चाहते हैं लेकिन डैडी से डरते हैं, इसीलिए नहीं आते. मम्मी, आप एक बार…सिर्फ एक बार उन से कह दो कि आप ने उन्हें माफ किया, वे दौड़ते हुए आएंगे.’’


‘‘सच…’’ ऋचा ने उसे अपने सीने से लगा लिया, ‘‘बेटी, आज तू ने मुझे दोगुनी खुशी दी है,’’ वह खुशी से विह्वल हुई जा रही थी.


‘‘हां, मम्मी, आप उन्हें फोन तो करो,’’ अंकिता चहक रही थी, ‘‘मैं भाभी से मिलना चाहती हूं.’’


‘‘अभी करती हूं. पहले उन को बता दूं. सुन कर वे भी खुशी से पागल हो जाएंगे. हम लोगों ने न जाने कितनी बार उन को बुलाने के बारे में सोचा. बस हठधर्मिता में पड़े रहे. बेटे के सामने झुकना नहीं चाहते थे परंतु आज हम बेटे के लिए और उस की खुशी के लिए छोटे बन जाएंगे. उसे फोन करेंगे.’’


वह बाहर जाने के लिए मुड़ी. कमरे के बाहर खड़े आदित्य अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे थे. आज उन्हें खोई हुई खुशी मिल रही थी. बेटी भी वापस अंधेरी गलियों में भटकने से बच गई थी. वह सहीसलामत घर लौट आई थी. बेटा भी मिल गया था. आज उन की हठधर्मिता टूट गई थी. उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था.


ऋचा ने आदित्य को बाहर खड़े देखा. वे समझ गईं कि अब कुछ कहने की जरूरत नहीं थी. वे सब सुन चुके थे. उन के पास जा कर भरे गले से बोली, ‘‘चलिए, बेटे को फोन कर दें और बहू के स्वागत की तैयारी


करें. आज हमें दोगुनी खुशी मिल रही है.


ऐसा लग रहा है, जैसे घोंसले के पंछी वापस आ गए हैं. अब हमारा आशियाना वीरान


नहीं रहेगा.’’


‘‘हां, ऋचा,’’ आदित्य ने उसे बांहों के घेरे में लेते हुए कहा, ‘‘घोंसले के पंछी घोंसले में ही रहते हैं, डाल पर नहीं. प्रतीक को वापस आना ही था. हमारी बगिया के फूल यों ही हंसतेमुसकराते रहें. उन की सुगंध चारों ओर फैले और वे अपनी महक से सब के जीवन को गुलजार कर दे.


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Wednesday, February 12, 2025

प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो

 प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो


रात को नींद नहीं आ रही थी। बेचैनी में करवटें बदलते हुए जब थक गई, तो उठकर लैपटॉप खोल लिया। मैसेज रिक्वेस्ट्स पर नजर पड़ी। जिज्ञासावश क्लिक किया। वहां लिखा था:
*"अगर मैं गलत नहीं हूं, तो आप सीमा गुप्ता हैं? आपकी प्रोफाइल फोटो देखकर लग रहा है। वही सीमा, जो 40 साल पहले शिमला में रहती थीं। आपकी बहन का नाम सुमन था और भाई का नाम करण? मैं रजत मेहता हूं। आपके पिताजी के मित्र का बेटा। एक बार अपने माता-पिता के साथ आपके घर आया था और हम साथ शिमला घूमने गए थे। अगर आपको याद हो, तो कृपया जवाब दें।"*
"रजत!" मेरे मुंह से हल्की चीख निकल गई। धड़कनें तेज हो गईं। ऐसा लगा, जैसे किसी पुराने खजाने का ताला अचानक खुल गया हो। शादी के बाद मेरा नाम सीमा शर्मा हो गया था, लेकिन उसने मुझे पहचान लिया।
मैं उसके नाम पर नजर गड़ाए रही। जवाब देने के लिए क्लिक करने लगी, लेकिन मन में सवाल उठा, "क्या ये ठीक रहेगा?" उसका नाम देखकर भीतर कई भाव उमड़ने लगे—खुशी और अपराधबोध का एक अजीब मिश्रण। मैंने खुद को रोका, लैपटॉप बंद किया और बिस्तर पर लेट गई। लेकिन "रजत मेहता" नाम दिमाग में हलचल मचा चुका था।
मैं 17 साल की थी। पिताजी के दोस्त अपने बेटे रजत का एडमिशन कराने शिमला आए थे। कुछ दिनों तक वह हमारे घर रुका। रजत शांत और संयमित स्वभाव का था। मैं, मेरी बहन सुमन और भाई करण उसे शिमला की खूबसूरती दिखाने ले जाते। उसकी आंखों की गहराई ने कब मेरे दिल को छू लिया, पता ही नहीं चला। और मेरे खामोश इशारे शायद उसके दिल की आवाज सुन चुके थे।
हमारे बीच एक मूक प्रेम पनप चुका था। लेकिन वो दौर ऐसा था, जब भावनाओं का इजहार खुलकर करना संभव नहीं था।
रजत के संदेश ने मुझे अतीत में झांकने पर मजबूर कर दिया। चार दिनों तक खुद को रोकने की कोशिश की, लेकिन पांचवें दिन जवाब दिया:
*"हां, तुमने सही पहचाना। मैं वही सीमा हूं। इतने सालों बाद मेरी याद कैसे आई?"*
उसने तुरंत लिखा:
*"याद उसकी आती है, जिसे कभी भुलाया गया हो। तुम्हें तो कभी भुला ही नहीं पाया।"*
उसके शब्दों ने दिल को झकझोर दिया। मैंने पूछा:
*"फिर मेरे पत्रों का जवाब क्यों नहीं दिया?"*
उसने लिखा
*"पिताजी के देहांत के बाद घर की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। मां और बहनें मुझ पर निर्भर थीं। पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी। उस वक्त तुम्हारे पत्रों का जवाब देना मुमकिन नहीं था। लेकिन तुम हमेशा मेरे दिल में थीं।"*
हमारी बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। उसने बताया कि उसकी दो बेटियां हैं और पत्नी बहुत सहयोगी है। लेकिन उसने यह भी स्वीकार किया कि उसके दिल का एक कोना अब भी मेरे लिए खाली है।
कुछ दिनों बाद उसने बताया कि वह किसी शादी में शिमला आ रहा है और मुझसे मिलना चाहता है। पहले मैंने झिझकते हुए मना कर दिया, लेकिन बाद में सहमति दे दी।
रजत अपनी पत्नी के साथ मेरे घर आया। मेरे पति भी मौजूद थे। बातचीत औपचारिक रही, लेकिन हमारी आंखों ने हमारी अधूरी कहानी कह दी। उसकी उपस्थिति में वह पुराना एहसास फिर से जाग उठा।
रजत चला गया, लेकिन अपने साथ मेरी छिपी हुई यादों की परतों को फिर से खोल गया। गुलजार साहब की पंक्तियां इस एहसास को खूबसूरती से बयां करती हैं:
*"सिर्फ एहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।"*
रजत के साथ बीता वह दौर और उसकी स्मृति, मेरे जीवन का एक ऐसा हिस्सा है, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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आत्मविश्वास



 शहर के मशहूर लोहार के पास एक नौजवान आया और बोला मुझे ऐसी तलवार बना दो जो सबसे अलग हो मुझे बादशाह की फौज में जंग में जाना है, मैं कुछ कमाल करना चाहता हूँ, लोहार ने कहा ऐसी तलवार बनाने में समय लगता है, आप एक साल इंतजार करेंगे...?

नौजवान तैयार हो गया, लोहार ने उससे कहा अब आप एक साल फ्री है तो ऐसा करो कि तलवार चलाने की कला तलवार के गुरू से सीखो, आपकी ये तलवार बहुत खास होगी, इसलिए किसी माहिर गुरु का छात्र होना ज़रूरी है, नौजवान ने प्रशिक्षण शुरू कर दिया, एक साल बाद वो लोहार के पास आया और उससे अपनी तलवार ले ली, जंग में गया, खूब तारीफ और नाम कमाया,
जब नौजवान जंग से लौटकर लोहार का शुक्रिया अदा करने आया तो लोहार ने कहा शुक्रिया उस उस्ताद का अदा करो जिससे तुमने तलवारबाज़ी की कला सीखी, तुम्हारी ये तलवार आम तलवार थी जो दो दिन में बन गई, यह आपकी कला है जो एक साधारण चीज़ को ख़ास बनाती है, प्रशिक्षण वह जादू है जो किसी भी कार्य के परिणाम को इतना विशेष बनाता है कि देखने वालों को लगता है कि यह जादू है, क्योंकि प्रशिक्षण आत्मविश्वास देता है,
आत्मविश्वास भी एक जादू है, ये जादू आपसे कुछ भी करवा सकता है, अगर आपको इसका मंतर मालुम हो,

गोद लिया बेटा

 मुकेश यह जान कर हैरान हो गया. सालों पहले जिस मामाजी ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था वे अचानक यहां क्यों आ रहे हैं. क्या उन्हें हम से कोई काम है या उन के दिमाग में फिर से टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने की बात आ गई है. इसी उधेड़बुन में पड़ा वह अतीत की यादों में खो गया.

मुकेश को याद आया कि जब इंजीनियरिंग का कोर्स करने के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ा था तो मम्मीपापा ने होस्टल में रखने के बदले उसे मामा के यहां रखना ज्यादा बेहतर समझा था. उस समय मामाजी की शादी को 2 साल ही बीते थे. उन का एक ही बच्चा था.
मुकेश ने इंजीनियरिंग पास कर ली थी. उस की भी शादी हो गई. अब तक मामाजी के 3 बच्चे हो चुके थे जबकि मुकेश के शादी के 5 साल बाद तक भी कोई बच्चा नहीं हुआ और मामी अगले बच्चे की तैयारी में थीं.
मुकेश एक बच्चे को गोद लेना चाहता था और मामाजी चाहते थे कि उन के आने वाले बच्चे को वह गोद ले ले. मामा के इस प्रस्ताव में मुकेश के मातापिता की भी सहमति थी लेकिन मुकेश व अंजलि इस पक्ष में नहीं थे कि मामा के बच्चों को गोद लिया जाए. इस बात को ले कर मामा और भांजे के बीच का रिश्ता जो टूटा तो आज तक मामा ने अपनी शक्ल उन को नहीं दिखाई.
मुकेश अपने एहसान का बदला चुकाने के लिए या समझो रिश्ता बनाए रखने के बहाने से मामा के बच्चों को उपहार भेजता रहता था. मामा ने उस के भेजे महंगे उपहारों को कभी लौटाया नहीं पर बदले में कभी धन्यवाद भी लिख कर नहीं भेजा.
अतीत की यादों से निकल कर मुकेश तैयार हो कर अपने दफ्तर चला गया. शाम को लौटा तो देखा अंजलि परेशान थी. उस के चेहरे पर अजीब सी मायूसी छाई थी. दोनों बेटों, गगन और रजत को वहां न पा कर वह और भी घबरा सा गया. हालांकि मुकेश समझ रहा था, पर क्या पूछता? जवाब तो वह भी जानता ही था.
अंजलि चाह रही थी कि वह दोनों बेटों को कहीं भेज दे ताकि मामाजी की नीयत का पता चल जाए. उस के बाद बेटों को बुलाए.
मुकेश इस के लिए तैयार नहीं था. उस का मानना था कि बच्चे जवान हो रहे हैं. उन से किसी बात को छिपाया नहीं जाना चाहिए. इसीलिए अंजलि के लाख मना करने के बाद भी मुकेश ने गगन- रजत को बता दिया कि कल यहां मेरे मामाजी आ रहे हैं. दोनों बच्चे पहले तो यह सुन कर हैरान रह गए कि पापा के कोई मामाजी भी हैं क्योंकि उन्होंने तो केवल दादाजी को ही देखा है पर दादी के भाई का तो घर में कभी जिक्र भी नहीं हुआ.
इस के बाद तो गगन और रजत ने अपने पापा के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी कि मामाजी का घर कहां है, उन के कितने बच्चे हैं, क्याक्या करते हैं, क्या मामाजी के बच्चे भी आ रहे हैं आदिआदि.
मुकेश बेहद संभल कर बच्चों के हर सवाल का जवाब देता रहा. अंजलि परेशान हो बेडरूम में चली गई.
अंजलि और मुकेश दोनों ही रात भर यह सोच कर परेशान रहे कि पता नहीं मामाजी क्या करने आ रहे हैं और कैसा व्यवहार करेंगे.
सुबह अंजलि ने गगन और रजत को यह कह कर स्कूल भेज दिया कि तुम दोनों की परीक्षा नजदीक है, स्कूल जाओ.
इधर मुकेश मामाजी को लेने स्टेशन गया उधर अंजलि दोपहर का खाना बनाने के लिए रसोई में चली गई. अंजलि ने सारा खाना बना लिया लेकिन मामाजी को ले कर वह अभी तक लौटा नहीं. वह अभी यही सोच रही थी कि दरवाजे की घंटी घनघना उठी और इसी के साथ उस का दिल धक से कर गया.
मुकेश ही था, पीछेपीछे मामाजी अकेले आ रहे थे. अंजलि ने उन के पांव छुए. मामाजी ने हालचाल पूछा फिर आराम से बैठ गए और सामान्य बातें करते रहे. उन्होंने चाय पी. खाना खाया. कोई लड़ाई वाली बात ही नहीं, कोई शक की बात नहीं लग रही थी. ऐसा लगा मानो उन के बीच कभी कोई लड़ाई थी ही नहीं. अंजलि जितना पहले डर रही थी उतना ही वह अब निश्चिंत हो रही थी.
खाना खा कर बिस्तर पर लेटते हुए मामाजी बोले, ‘‘पता नहीं क्यों कुछ दिनों से तुम लोगों की बहुत याद आ रही थी. जब रहा नहीं गया तो बच्चों से मिलने चला आया. सोचा, इसी बहाने यहां अपने राहुल के लिए लड़की देखनी है, वह भी देख आऊंगा,’’ फिर हंसते हुए बोले, ‘‘आधा दर्जन बच्चे हैं, अभी से शादी करना शुरू करूंगा तभी तो रिटायर होने तक सब को निबटा पाऊंगा.’’
अंजलि ने देखा कि मामाजी की बातों में कोई वैरभाव नहीं था. मुकेश भी अंजलि को देख रहा था, मानो कह रहा हो, देखो, हम बेकार ही डर रहे थे.
‘‘अरे, तुम्हारे दोनों बच्चे कहां हैं? क्या नाम हैं उन के?’’
‘‘गगन और रजत,’’ मुकेश बोला, ‘‘स्कूल गए हैं. वे तो जाना ही नहीं चाह रहे थे. कह रहे थे मामाजी से मिलना है. इसीलिए कार से गए हैं ताकि समय से घर आ जाएं.’’
‘‘अच्छा? तुम ने अपने बच्चों को गाड़ी भी सिखा दी. वेरी गुड. मेरे पास तो गाड़ी ही नहीं है, बच्चे सीखेंगे क्या… शादियां कर लूं यही गनीमत है. मैं तो कानवेंट स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ा सका. अगर तुम मेरे एक को भी…पढ़ा…’’ मामाजी इतना कह कर रुक गए पर अंजलि और मुकेश का हंसता चेहरा बुझ सा गया.
अंजलि वहां से उठ कर बेडरूम में चली गई.
‘‘कब आ रहे हैं बच्चे?’’ मामाजी ने बात पलट दी.
‘‘आने वाले होंगे,’’ मुकेश इतना ही बोले थे कि घंटी बज उठी. अंजलि दरवाजे की तरफ लपकी. गगनरजत थे.
‘‘मामाजी आ गए…’’ दोनों ने अंदर कदम रखने से पहले मां से पूछ लिया और कमरे में कदम रखते ही पापा के साथ एक अजनबी को बैठा देख कर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यही हैं मामाजी.
‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दोनों ने उन के पैर छू लिए. मुकेश ने हंस के कहा, ‘‘मामाजी, मेरे बेटे गगन और रजत हैं.’’
‘‘वाह, कितने बड़े लग रहे हैं. दोनों कद में बाप से ऊंचे निकल रहे हैं और शक्लें भी इन की कितनी मिलती हैं,’’ इस के आगे मामाजी नहीं बोले.
‘‘मामाजी, मैं आप के लिए आइसक्रीम लाया हूं. मम्मी, ये लो ब्रिक,’’ गगन ने अंजलि को ब्रिक पकड़ा दी.
‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता कि मामाजी को आइसक्रीम अच्छी लगती है?’’ मुकेश ने पूछा.
‘‘पापा, आइसक्रीम किसे अच्छी नहीं लगती,’’ गगन बोला.
अंजलि ने सब को प्लेटों में आइसक्रीम पकड़ा दी. उस के बाद मामाजी ने दोनों बच्चों से पूछना शुरू किया कि कौन सी क्लास में पढ़ते हो? क्याक्या पढ़ते हो? किस स्कूल में पढ़ने जाते हो? वहां क्याक्या खाते हो?
‘‘बस, मामाजी, अब आप आराम कर लें,’’ अंजलि ने उठते हुए कहा, ‘‘गगनरजत, तुम दोनों कपड़े बदल लो, मैं तुम्हारे कमरे में ही खाना ले कर आती हूं.’’
‘‘मामाजी, आप अभी रहेंगे न हमारे साथ?’’ गगन ने उठतेउठते पूछा.
‘‘हां, 3-4 दिन तो रहूंगा ही.’’
अंजलि के साथ गगन और रजत अपने बेडरूम की तरफ बढ़े.
अंजलि रसोई में जाने लगी तो मामाजी ने मुकेश से पूछा, ‘‘गगन को ही एडोप्ट किया था न तुम ने…’’ मुकेश सकपका गया.
‘‘दोनों को देखने पर बिलकुल नहीं लगता कि इन में एक गोद लिया है,’’ मामाजी ने फिर बात दोहराई थी.
‘‘मामाजी, यह क्या बोल रहे हैं?’’ मुकेश ने हैरत से मामाजी को देखा, ‘‘आप को ऐसा नहीं बोलना चाहिए. वह भी बच्चों के सामने?’’
बच्चे मामाजी की बात सुन कर रुक गए थे. अंजलि के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. गगन तो सन्न ही रह गया. रजत को जैसे होश सा आया.
‘‘मम्मी, मामाजी किस की बात कर रहे हैं? कौन गोद लिया
है?’’
अंजलि तो मानो बुत सी खड़ी रह गई थी. सालों पहले कहे गए मामाजी के शब्द, ‘गैर, गैर होते हैं अपने अपने, मैं ऐसा साबित कर दूंगा,’ उस की समझ में अब आ रहे थे. तो इतने सालों बाद मामाजी इसलिए मेरे घर आए हैं कि मेरा बसाबसाया संसार उजाड़ दें.
गगन अभी तक खामोश मामाजी को ही देख रहा था. अंजलि को जैसे होश आया हो, ‘‘कुछ नहीं, बेटे, किसी और गगन की बात कर रहे हैं. तुम अपने कमरे में जाओ.’’
मुकेश के पांव जड़ हो रहे थे.
‘‘अरे, अंजलि बेटे, तुम ने गगन को बताया नहीं कि इस को तुम अनाथाश्रम से लाई थीं. उस के बाद रजत पैदा हुआ था…’’ मामाजी रहस्यमय मुसकान के साथ बोले.
‘‘यह क्या कह रहे हैं, मामाजी?’’ मुकेश विचलित होते हुए बोला.
‘‘देखो मुकेश, आज नहीं तो कल किसी न किसी तरह गगन को सच का पता चल ही जाएगा तो फिर तुम क्यों छिपा रहे हो इस को.’’
गगन जहां खड़ा था वहीं बुत की तरह खड़ा रहा, पर उस की आंखें भर आईं, क्योंकि मम्मीपापा भी मामाजी को चुप कराने की ही कोशिश कर रहे थे. यानी वह जो कुछ कह रहे हैं वह सच… रजत हैरानपरेशान सब को देख रहा था. गगन पलट कर अपने बेडरूम में चला गया. रजत उस के पीछेपीछे चला आया. पूरे घर का माहौल पल भर में बदल गया था. कपड़े बदल कर गगन सो गया. उस ने खाना भी नहीं खाया.
‘‘मम्मी, गगन रोए जा रहा है, आज वह दोस्तों से मिलने भी नहीं गया. पहले कह रहा था कि मुझे एक पेपर लेने जाना है.’’
अंजलि की हिम्मत नहीं हुई गगन से कुछ भी पूछे. रात के खाने के लिए अंजलि ने ही नहीं चाहा कि गगन व रजत मामाजी के पास बैठ कर खाना खाएं. मामाजी टीवी देखने में मस्त थे. ऐसा लग रहा था कि उन का मतलब हल हो गया. मुकेश भी ज्यादा बात नहीं कर रहा था. उसे ध्यान आ रहा था उस झगड़े का, जो मम्मीपापा, मामामामी ने उस के साथ किया था. दरअसल, वे चाहते थे कि हमारा बच्चा नहीं हुआ तो मामी के छोटे बच्चे को गोद ले लें. पर अंजलि चाहती थी कि हम उस बच्चे को गोद लें जिस के मातापिता का पता न हो, ताकि कोई चांस ही न रहे कि बच्चा बड़ा हो कर अपने असली मातापिता की तरफ झुक जाए. वह यह भी चाहती थी कि जिसे वह गोद ले वह बच्चा उसे ही अपनी मां समझे.
मुकेश यह भी समझ रहा था कि मामाजी की नजर उस के और अंजलि के पैसों पर थी. उन्हें लग रहा था कि उन का एक बच्चा भी अगर मेरे घर आ गया तो बाकी के परिवार का मेरे घर पर अपनेआप हक हो जाएगा. उसे आज भी याद है जब मामाजी की हर चाल नाकाम रही तो खीज कर वह चिल्ला पड़े थे, ‘अपने लोगों को दौलत देते हुए एतराज है पर गैरों में बांट कर खुश हो, तो जाओ आज के बाद हमारा तुम से कोई वास्ता नहीं.’
मामाजी जब अंतिम बार मिले तो बोले थे, ‘कान खोल कर तुम दोनों सुन लो, गैर गैर होते हैं, अपने अपने ही. और मैं यह साबित कर दूंगा.’
‘और आज यही साबित करने आए हैं. लगता है गगन को गैर साबित कर के ही जाएंगे, लेकिन मैं मामाजी की यह इच्छा पूरी नहीं होने दूंगा,’ सोचता हुआ मुकेश करवट बदल रहा था.
इधर अंजलि की आंखों से नींद जैसे गायब थी. जब रहा नहीं गया तो उठ कर वह गगन के कमरे की तरफ चल दी. उस का अंदाजा सही था, गगन जाग रहा था. रजत भी जागा हुआ था.
‘‘तू पागल है, गगन,’’ रजत बोला, ‘‘मामाजी ने कहा और तू ने उसे सच मान लिया. मामाजी हमारे ज्यादा अपने हैं या मम्मीपापा.’’
अंजलि के पीछे मुकेश भी आ गए. दोनों गगन के कमरे में अपराधियों की तरह आ कर बैठ गए. अंजलि ने गगन को देखा. उस की आंखें भरी हुई थीं.
‘‘गगन, तू ने खाना क्यों नहीं खाया?’’
गगन कुछ बोला नहीं. बस, मां की नजरों में देखता रहा.
‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मैं क्या गैर हूं?’’ अंजलि रो पड़ी. उस के शब्दों में अपनापन और रोब दोनों थे, ‘‘मम्मी हूं मैं तेरी…कोई भी उठ कर कुछ कह देगा और तू मान लेगा? मेरी बात पर यकीन नहीं है? उस की बात सुन रहा
है जो सालों बाद अचानक उठ कर चला आया.
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‘‘बेटे, अगर हम तेरे मातापिता न होते तो क्या तुम्हें इतने प्यार से रखते? क्या तुम्हें कभी महसूस हुआ कि हम ने तुम्हें रजत से कम चाहा है,’’ अंजलि के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. फिर मुकेश की तरफ देख कर बोली, ‘‘तुम्हारे मामा को किसी का बसता घर देख खुशी नहीं होती. कहीं भी उलटीसीधी बातें बोलने लगते हैं. मालूम नहीं कब जाएंगे.’’
गगन नजरें झुकाए आंसू टपकाता रहा. उस का चेहरा बनबिगड़ रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये अचानक तूफान कहां से आ गया. कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जीवन में इस तरह के किसी तूफान का सामना करना पड़ेगा.
‘‘बेटे, मैं कभी तुम्हें नहीं बताता पर आज स्थिति ऐसी है कि बताना ही पड़ेगा,’’ मुकेश ने कहा, ‘‘अगर हम तुम्हें पराया जानते तो मैं अपनी वसीयत में सारी प्रापर्टी, बैंकबैलेंस सबकुछ, तुम तीनों के नाम न करता.’’
‘‘और मैं ने भी अपनी वसीयत में अपने हिस्से की सारी प्रापर्टी तुम दोनों के नाम ही कर दी है, ताकि कभी भी झगड़ा न हो सके. हमारे किसी बेटे का, अगर कभी दिल बदल भी जाए तो कानूनी फैसला न बदले,’’ अंजलि बोली, ‘‘तुम मामाजी की बातों पर ध्यान मत दो, बेटे.’’
गगन खामोशी से दोनों की बातें सुन रहा था. उसे लगा कि अगर वह कुछ भी बोला तो सिर्फ रुलाई ही बाहर आएगी.
सुबह अंजलि ने रजत को झकझोरा तो उस की नींद खुली.
‘‘गगन कहां है?’’ अंजलि की आवाज में घबराहट थी.
‘‘कहां है, मतलब? वह तो यहीं सो रहा था?’’ रजत बोला.
‘‘बाथरूम में होगा न?’’ रजत ने अधमुंदी आंखों से कहा.
‘‘कहीं नहीं है वह. पूरा घर छान लिया है मैं ने.’’
अंजलि लगभग चीख रही थी, ‘‘तू सोता रहा और तेरी बगल से उठ कर वह चला गया. बदतमीज, तुझे पता ही नहीं चला.’’
‘‘मम्मी, मुझे क्या पता… मम्मी, आप बेकार परेशान हो रही हैं, यहीं होगा, मैं देखता हूं,’’ रजत झटके से बिस्तर से उठ गया पर मन ही मन वह भी डर रहा था कि कहीं मम्मी की बात सच न हो.
‘‘कहीं घूमने निकल गया होगा, आज रविवार जो है? आ जाएगा,’’ मुकेश ने अंजलि को बहलाया. पर वह जानता था कि वह खुद से भी झूठ बोल कर तसल्ली दे रहा है.
अंजलि का देर से मन में रुका गुबार सहसा फूट पड़ा. वह फफक पड़ी. उस का मन किया कि मामाजी को कहे कि हो गई तसल्ली? पड़ गई दिल में ठंडक? साबित कर दिया तुम ने. अब जाओ, यहां से दफा हो जाओ? पर प्रत्यक्ष में कुछ कह नहीं पाई.
‘‘दोपहर हो चुकी है. एक फोन तक नहीं किया उस ने जबकि पहले कभी यों बिना बताए वह कहीं जाता ही नहीं था,’’ मुकेश भी बड़बड़ाए. उन की आंखों से भी अनजानी आशंका से नमी उतर रही थी.
हर फोन पर मुकेश लपकता. अंजलि की आंखों में एक उम्मीद जाग जाती पर फौरन ही बुझ जाती. इस बीच मामाजी अपने घर वालों से फोन पर लंबी बातें कर के हंसते रहे. साफ लग रहा था कि वह इन दोनों को चिढ़ा रहे हैं.
अंधेरा हो गया, रजत लौटा, पर खाली हाथ. उस का चेहरा उतर गया था. वह सोच रहा था कि गगन कितना बेवकूफ है. कोई कुछ कहेगा तो हम उसे सच मान लेंगे?
तभी मामाजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘आजा, आजा, मेरे बेटे, आजा…बैठ…’’
अंजलि, मुकेश और रजत बाहर के दरवाजे की तरफ लपके. गगन मामाजी के पास बैठ रहा था.
‘‘कहां रहा सारा दिन? कहां घूम के आया? पानी पीएगा? अंजलि बेटे, इसे पानी दे, थकाहारा आया है,’’ मामा की आवाज में चटखारे लेने वाला स्वर था.
अंजलि तेजी से गगन की तरफ आई और उसे बांह से पकड़ कर मामाजी के पास से हटा दिया.
‘‘कहां गया था?’’ अंजलि चीखी थी, ‘‘बता के क्यों नहीं गया? ऐसे जाते हैं क्या?’’ और गुस्से से भर कर उसे थप्पड़ मारने लगी और फिर फफक- फफक कर रो पड़ी.
‘‘गगन, तेरा गुस्सा मम्मी पर था न, तो मुझे क्यों नहीं बता कर गया,’’ रजत बोला, ‘‘मैं ने तेरा क्या बिगाड़ा था?’’
‘‘ऐसे भी कोई चुपचाप निकलता है घर से, हम क्या इतने पराए हो गए?’’ मुकेश की आवाज भी भर्राई हुई थी.
सभी की दबी संवेदनाएं फूट पड़ी थीं.
‘‘मामाजी, आप कुछ कह रहे थे. कहिए न…’’ गगन ने अपने आंसू पोंछे… पर अंजलि ने पीछे से गगन को खींच लिया. पागल सी हो गई थी अंजलि, ‘‘कुछ नहीं कह रहे थे. तू जा अपने कमरे में. जो कुछ सुनना है मुझ से सुन. मैं तेरी मां हूं, ये तेरे पिता हैं और ये तेरा भाई.’’
मुकेश अंजलि को पकड़ रहा था.
‘‘मामाजी, आप कह रहे थे मैं इन का गोद लिया बेटा हूं, है न…’’
‘‘नहीं, तुम मेरे बेटे हो,’’ अंजलि ने गगन को जोर से झटक दिया.
गगन अंजलि के कंधे को थाम कर बोला, ‘‘मम्मी, मैं तो मामाजी को यही समझा रहा हूं कि मैं आप का बेटा हूं. मम्मी, अपने पैदा किए बच्चे को तो हर कोई पालता है, पर एक अनाथ बच्चे को इतना ढेर सारा प्यार दे कर तो शायद ही कोई औरत पालती होगी. उस से बड़ी बात तो यह है कि आप ने रजत और मुझ में कोई फर्क नहीं रखा, तो मैं क्यों मानूं मामाजी की बात.
‘‘आप ही मेरी मां हैं,’’ गगन ने अंजलि को अपनी बांहों में समेट लिया और मामाजी से कहा, ‘‘मामाजी, आप ने क्या सोचा था कि मुझे जब पता चलेगा कि मैं अनाथाश्रम से लाया गया हूं तो मैं अपनी असली मां को ढूंढ़ने निकल पड़ूंगा? मामाजी, क्यों ढूंढं़ ू मैं उस औरत को जिस को मेरी जरूरत कभी थी ही नहीं. उस ने मुझे पैदा कर के मुझ पर एहसान नहीं किया बल्कि मम्मीपापा ने मुझे पालापोसा, मुझे नाम दिया, मुझे भाई दिया, मुझे एक घर दिया, समाज में मुझे एक जगह दी. इन का एहसान मान सकता हूं मैं. वरना आज मैं सड़ रहा होता किसी अनाथाश्रम के मैलेकुचैले कमरों में.’’
रजत ने खुशी से गगन का हाथ दबा दिया. मुकेश ने गगन के सिर पर हाथ फिराया. अंजलि, मुकेश और रजत की आंखों में आंसू छलक आए. सब ने तीखी नजरों से मामाजी को देखा.
अंजलि तो नहीं बोली पर मुकेश से रहा नहीं गया. बोले, ‘‘क्यों मामाजी, आप तो गैर को गैर साबित करने आए थे न? और आप, आप तो मेरे अपने थे, तो आप ने गैरों सी दुश्मनी क्यों निभाई?’’
गगन अंजलि के गले से लिपट गया. अंजलि के आंसू फिर निकल आए.
अंजलि जानती थी अब उसे मामा जैसे किसी व्यक्ति से डरने की कोई जरूरत नहीं है. अब सच में उस के दोनों बेटे अपने ही हैं.

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