अगिया वेताल -04

भगत ! रूप की नायिका फ़िर से खनकते हुये सम्मोहित करने वाले स्वर में बोली - इस अगर मगर किन्तु परन्तु लेकिन वेकिन में समय नष्ट न कर । मैं कह चुकी हूँ - प्यार अँधा होता है । वह अँजाम की परवाह नहीं करता । वह किसी भी बात की परवाह नहीं करता ।
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परन्तु..। न चाहते हुये फ़िर भी भगत के मुँह से निकल ही गया ।
और तब अपनी उपेक्षा से रूठकर मानों वह अनुपम सुन्दरी जाने को मुङी । भगत का मानों कलेजा ही किसी ने काट डाला हो ।
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ठहरो रूपा ! कहते हुये वह अपने राख आसन से उठ गया । उसने एक बेबसी की निगाह चिता पर रखी हंडिया पर डाली । और गले से माला उतार कर चिता पर फ़ेंक दी । चंडूलिका का काम हथियार फ़िर कामयाव रहा था । सफ़लता से चलती साधना सिद्धि खण्डित हो चुकी थी । गणों की खुशी का ठिकाना नहीं था । वे दिलचस्पी से सारा नजारा देख रहे थे ।
रूपा ने अपना आँचल नीचे गिरा दिया । उसके उन्नत स्तन भगत को चुनौती देने लगे । भगत ने तेजी से उसे आलिंगन में भर लिया । और रूपा मेरी रूपा ओ मेरी जान करने लगा ।
तभी जंगली पेङ की डाली से झूलता हुआ वह साया तेजी से हवा में लहराता हुआ सा आया । और भगत में समाते हुये उसने भगत को अपने आवेश में ले लिया । एक क्षण को सिर्फ़ एक क्षण को भगत बेजान लाश के समान गिरने को हुआ । मगर दूसरे ही क्षण लङखङा कर संभल गया । इसके साथ ही गणों को मानों होश आया । और वे तेजी से वहाँ से चले गये । चोखा फ़िर से किसी पहलवान की तरह तनकर खङा हो गया । और रूपा के बदन को सहलाने लगा ।फ़िर वह लरजते हुये से स्वर में बोला - र र र रूप ! मेरी रानी ।
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हाँ..स्पर्श..! रूपा आँखे बन्द कर बोली - कितनी तङपी हूँ मैं ..
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स स स सुन्दरी....आज तेरी त्रुप्ति होगी ! वह उसे समेटता हुआ बोला - इस मानव शरीर के द्वारा ।
फ़िर वह दोनों मुर्दे के पास ही गिरते चले गये । और एकाकार होने लगे । रूपा कराहने लगी । और स्पर्श उसे घङी की सुईयों की भांति उसी स्थान पर गोल गोल घुमाने लगा । उसी अवस्था में जब सरकते सरकते रूपा मुर्दे की राख के एकदम समीप पहुँची । तब वह मुठ्ठी में राख भर भरकर चोखा पर फ़ेंकने लगी ।
दो घण्टे बीत गये ।
रूपा निढाल सी एक तरफ़ बैठी थी । चोखा अलग जमीन पर बैठा था । वह किसी खूँखार शेरनी की तरह रति स्थान पर टपके रक्त को देख रही थी । उसकी आँखों में घृणा का सागर उमङ रहा था ।
फ़िर अचानक वह उठी । इसके साथ ही किसी यन्त्र सा चोखा भी खङा हो गया । वह रक्त के पास पहुँची । और उसे उँगली से लगाया । फ़िर उसने चोखा का तिलक किया । और अपने माथे पर गोल बिन्दी लगायी ।
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अब ! वह खतरनाक स्वर में बोली - जाओ ( फ़िर वह चीखी - जाओ तुम । मैंने कहा । जाओssss..।चोखा के बदन से परछाई नुमा साया निकलकर पेङ पर चला गया । चोखा फ़िर लङखङाया । और गिरता गिरता संभल गया । बल्कि वह गिरने ही वाला था । जब रूपा ने उसे संभाला ।
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तूने..। फ़िर यकायक वह घोर नफ़रत से बोली - मेरा कौमार्य भंग किया । बोल.. तूने मेरी वो अमानत । जो मैंने.. अपने पति को.. सौंपने को रखी थी । उसे नष्ट किया । बोल..पापी..बोल..अब बोलता क्यों नहीं ।
चोखा को समझ में नहीं आ रहा था । वह क्या कह रही है । और क्यों कह रही है । उसे तेज चक्कर सा आ रहा था । और वह मुश्किल से खङा हो पा रहा था ।
रूपा ने किसी महाराष्ट्रियन औरत की भांति साङी समेटी । उसने साङी का पल्लू कसकर खोंसा ।
फ़िर वह किसी लङाका की भांति चोखा की तरफ़ बङी । और जबरदस्त घूँसा चोखा के जबङे पर मारा । चोखा को काली रात में दिन सा नजर आने लगा । घूँसा उसे किसी भारी घन की चोट के समान महसूस हुआ । उसका जबङा हिल गया । और खून निकलने लगा ।
फ़िर रूपा ने किसी दक्ष फ़ायटर की तरह उसे लात घूँसों पर रख लिया । चोखा पलटवार तो दूर अपना बचाव भी न कर सका । और अन्त में पस्त होकर चिता के पास ही गिर पङा । उसकी नाक से भल भल कर खून निकल रहा था ।
तब घायल शेरनी सी रूपा ने अपनी झूलती लटों को अपने सुन्दर मुखङे पर पीछे फ़ेंका । और गहरी गहरी सांसे लेने लगी । उसका सीना तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था ।
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धन्यवाद चंडूलिका । उसके कानों में सुनाई दिया - धन्यवाद देवी ।
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ऐ । अचानक वह गुर्राई - खाली धन्यवाद नहीं वेताल । हमें शरीर बार बार नहीं मिलते । वो भी ऐसे काम प्रवाहित माहौल में । जलती चिता । दो माध्यम जिस्म । वो भी जवान कन्या । और कद्दावर मनुष्य । मैं मृत्युवाहिनी हमेशा इसी की भूखी रहती हूँ ।
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पर । उसके कानों में भयभीत स्वर सुनाई दिया - ये माध्यम रूपा मर जायेगी देवी । और मैं इससे बहुत प्यार करता हूँ ।
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मर जाने दे । वह नफ़रत से बोली - मैं तो चाहती हूँ । सभी मर जायें । इस समाज की मूर्ख बन्दिशों के चलते ही हम प्रेतनियाँ अतृप्त मरी हैं । तू भी इन्हीं मनुष्यों का शिकार ही तो हुआ था । मनुष्य । हाँ मनुष्य । जो कभी हम भी थे ।
कहते कहते अचानक वह फ़ूट फ़ूटकर रोने लगी । फ़िर तेज स्वर में अट्टाहास करने लगी । यकायक उसने भरपूर थप्पङ चोखा के गाल पर मारा । और उसी पल चोखा उस पर झपट पङा । चिता पूरी तरह जल चुकी थी । अब उसमें अंगार ना के बराबर थे । बस उसकी राख ही गर्म थी ।
रूपा अपने प्राकृतिक रूप में खुल गयी । चोखा ने उसे उसी चिता के ऊपर लिटा दिया ।
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वेताल ! रूपा आह भरती हुयी बोली - तू कितना सुख देता है ।
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हाँ । चोखा बोला - चंडूलिका साक्षी ! तू अदभुत है । मौत की देवी कलियारी कुटी ।
दोपहर के एक बजे का समय था । अचानक ध्यान में लेटे हुये प्रसून ने आँखे खोल दी । वह सचेत होकर बैठ गया । और ध्यान टूटने की वजह सोचने लगा । तुरन्त ही उसे अपने ध्यान टूटने की वजह पता चल गयी । वे दो साये थे । जो उसी के बारे में बात करते हुये कलियारी काटेज की तरफ़ आ रहे थे । आन लगी हुयी सिद्ध कुटी ने किसी सचेत पहरेदार की तरह उसे सूचना कर दी थी । और तब वह तेजी से निकलकर झरना पार करते हुये कुछ दूर बनी उस पहाङी पर आ गया । जिस पर एक घने वृक्ष के नीचे दो बङी पत्थर की शिलाएं एक डबल बेड की तरह बिछी हुयी थी ।
(
कलियारी कुटी के बारे में विस्तार से जानने के लिये पूर्व प्रकाशित प्रेत कथा - प्रेतनी का मायाजाल देखें )वह उन्हीं शिला में से एक पर बैठ गया । और सिगरेट सुलगाकर आगंतुकों की प्रतीक्षा करने लगा । दरअसल वह नहीं चाहता था कि कुछ ही दूर गुप्त ढंग से बनी कलियारी काटेज के बारे में किसी को पता चले । पहले तो अदृश्य रूप से प्रतिबन्धित उस एरिया में कोई प्रवेश कर ही नहीं सकता था । और अगर करने की कोशिश भी करता । तो सिवाय उसे डरावने अनुभव के कुछ भी हासिल नहीं होने वाला था ।
फ़िर भी एक सच्चे सिद्ध योगी के नियमों का पालन करते हुये वह किसी को ऐसे अनुभवों से भी दूर रखना चाहता था । बस उसे हैरत इस बात की होती थी कि कैसे उसे जरूरतमन्द खोजते हुये इस अत्यन्त वीरान जगह पर भी आ ही जाते थे ।
जैसे ही वह साये उसके नजदीक आये । उनमें से एक को प्रसून ने तुरन्त पहचान लिया । वह मनोहर था । उसके गुरु की पुरानी पहचान वाला आदमी । दूसरा उसके लिये एकदम अपरिचित था । उनके इतने आसानी से वहाँ पहुँचने की वजह अब प्रसून को पता चल गयी थी । मनोहर ।
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बङे भाई ! कहते हुये उमर में उससे बङे मनोहर ने उसके चरण स्पर्श किये । और छाती से लग गया । फ़िर वह बोला - सच कह रहा हूँ । बता नहीं सकता । आज आपको देखकर कितनी खुशी हो रही है ।
वे दोनों भी दूसरी शिला पर बैठ गये । मनोहर बाबाजी के बारे में और तमाम पुरानी यादों के बारे में प्रफ़ुल्लित हुआ सा बात करने लगा ।
प्रसून को भी गुरु के बारे में सुनते हुये अच्छा लग रहा था । अतः वह आराम से सुनता रहा । कई वर्ष बाद मिलने से वे दोनों साथ आये व्यक्ति को मानों भूल ही गये ।अरे हाँ ! फ़िर मानों मनोहर को कुछ याद आया - प्रसून जी ! ये मेरा दोस्त चोखे है । ये भी भगत है । पर अबकी बार यह किसी ऐसी हवा वयार के चक्कर में उलझ गया कि इससे निबटते नहीं बन रहा । यह कहता है कि वे कई दुष्ट आत्मायें हैं । जिनके कारण यह उनको संभाल नहीं पा रहा । उनमें कुछ पिशाच मसान जिन्न जैसी प्रेत आत्मायें भी हैं । जिसकी वजह से ये कमजोर पङ जाता है । वैसे ये भी पहुँचा हुआ भगत है ।
प्रसून भावरहित मुख से उसकी बात सुनता रहा । फ़िर उसने सिगरेट सुलगायी । और केस उनकी तरफ़ बङाया । चोखे ने एक सिगरेट जला ली । मनोहर सिगरेट नहीं पीता । उसने अपने पास से बीङी जला ली ।
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वो मसान ! भगत बङी गम्भीरता से बोला - एक कुंवारी लङकी के ऊपर सवार है । और मेरे ख्याल से उसे एक साल से ऊपर हो गया । अभी कुछ समय से मैं उसका उपचार कर रहा हूँ । पर मुसीवत यह है । लङकी छुप छुप कर डेरे ( प्रेतवासा के स्थान ) पर जाती रही है । अतः कई प्रकार की वायु से आवेशित हो चुकी है । मैं एक का इंतजाम करता हूँ । तब तक दूसरा हावी हो जाता है । अतः इस कार्य हेतु दो या अधिक तांत्रिक शक्तियों की आवश्यकता है । तब कुछ बात बन सकती है ।
प्रसून के मन में आया । इस फ़्राड आदमी के जोरदार झापङ लगाये । और लात घूँसो से मार मार कर इसका बुरा हाल कर दे । पर मनोहर की तरफ़ देखते हुये उसने जबरन अपनी इच्छा पर नियन्त्रण किया । उसके दिल में जोरदार इच्छा हुयी कि काश ! मेरी जगह तू नीलेश के पास पहुँचा होता । तो हमेशा के लिये भगतई करना भूल जाता । तांत्रिकों के नाम पर कलंक ।भगत जी ! लेकिन प्रत्यक्ष में सौम्य मुस्कराहट के साथ वह बोला - आपके भगतई जीवन में कभी कोई मरीज अगिया वेताल प्रेताबाधा से पीङित आया है ।
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अगिया वेताल ! चोखा के दिमाग में मानों बम फ़टा हो । वह अपनी जगह पर उछलते उछलते बचा ।
और आँखे फ़ाङ फ़ाङकर प्रसून को देखने लगा । जो किसी दिव्य आत्मा की तरह मधुर मुस्कान के साथ उसी को देख रहा था ।
अगिया वेताल ..अगिया वेताल..बारबार चोखे के दिमाग में यह अजीव सा नया शब्द गूँजने लगा । वह समझ गया कि वह शेखी कितना ही मारे । पर रूपा के रूप जाल में फ़ँसकर उसने भारी मुसीवत मोल ले ली थी ।
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बङे भाई ! मनोहर उत्सुकता से बोला - ये नाम पहली बार सुना है । अगिया वेताल क्या होता है भाई ? मैंने तो आज तक विक्रम वेताल ही सुना था ।
मनोहर के सरल भाव पर प्रसून की हँसी निकलते निकलते बची । फ़िर वह बोला - मनोहर जी ! जो इंसान अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं । और किसी भी कारणवश उनका दाहकर्म या अंतिम संस्कार समय पर नहीं हो पाता । तब लावारिस ढंग से पङी हुयी ऐसी उपेक्षित लाश को मसान प्रेत आदि अधिकार में ले लेते हैं ।- वो क्यों भाई ? मनोहर उत्सुकता से बोला ।
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एकदम पक्का तो मैं भी नहीं कह सकता । बात अधिक न बङाने के उद्देश्य से प्रसून ने सफ़ेद झूठ बोला - पर शायद वे भोजन के लिये उसका इस्तेमाल करते हैं । अब ये मत पूछना । वे उसका भोजन किस तरह करते हैं । तब ऐसी लाश से जुङा मृतात्मा कुछ प्रक्रिया से गुजरकर ( जिसकी लाश थी ) अगिया वेताल हो जाता है ।

लेकिन इस शब्द को दूसरे कई अन्य अर्थों में भी प्रयोग किया जाता है । वास्तव में वेताल का सही अर्थ बिना लय यानी बे ताल के होना भी है । बिना नियन्त्रण के होना भी है । और अगिया को बहुत सी जगह स्थानीय बोली में आग के लिये प्रयोग किया जाता है । अतः ऐसी आग जो बेकाबू हो । नियन्त्रण के बाहर हो । उसे भी अगिया वेताल कहते हैं । इस तरह जब बेतहाशा गर्मी पङती है । जैसे मानों आग ही बरस रही हो । उसे भी अगिया वेताल कहते हैं । एक अगिया वेताल शिव का गण भी होता है । ( फ़िर वह मानों नीलेश को याद करता हुआ बोला । जिसने अपने स्वभाव अनुसार इस प्रेत का नाम ही बदल दिया था ) लेकिन इस शब्द अगिया वेताल से कहानीकारों कवियों आदि ने अगिया को अंगिया करते हुये स्त्री के आंतरिक वस्त्र अंगिया यानी चोली से जोङकर तमाम तरह के श्रंगारिक भावों उपमाओं आदि से विभिन्न कल्पनायें की हैं ।
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लेकिन भाई ! मनोहर फ़िर से बोला - आप अगिया वेताल की कहानी क्यों सुनाने लगे ?


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