डायन -04


ठीक दो घन्टे बाद


जैसे ही घङी ने रात के ग्यारह बजाये । हरीश को कुछ बैचेनी सी महसूस हुयी । ये बैचेनी क्यों थी । इसका उसे कुछ पता नहीं था । उसे लघुशंका की भी आवश्यकता महसूस हो रही थी । उसने अपने पास सोये लोगों पर निगाह डाली । वह तखत से उठ खङा हुआ । और लघुशंका हेतु मंदिर के पिछवाङे पहुँचा । तभी उसे मंदिर से कुछ ही फ़ासले पर स्थिति छोटी पहाङियों के नजदीक जुगनू की तरह चमकती मगर उससे अधिक प्रकाश वाली चार आँखे सी चमकती नजर आयीं । जो किन्ही जंगली जीवों जैसी प्रतीत होती थी । हरीश ने इससे पहले ऐसी अदभुत चीज कभी नहीं देखी थी । वह बेख्याली में सम्मोहित सा उधर जाने लगा । जैसे किसी अदृश्य डोर में बंधा हुआ हो । यह मौत का बुलावा था । अंतिम आमंत्रण ।
उसे नहीं पता था कि गजानन बाबा चुपचाप उसके पीछे दूरी बनाकर चल रहा था ।
बाहर हल्की हल्की सर्दी सी थी । यूँ भी खुले में गर्मियों में भी ठंड सी मालूम होती है । नीलेश ने अपने बदन पर जैकेट डाल ली । और उसकी जेवों में हाथ डाले हुये वह पहाङियों की तरफ़ जाने लगा । डायन कहाँ हैं ? क्या कर रही है ? अब इससे उसे कोई मतलब नहीं था ।
दरअसल उसने आज रात जागते ही गुजारने का तय कर लिया था । और वह इन आगंतुकों पर बराबर नजर रखे हुये था । उसे अच्छी तरह मालूम था कि डायन का कहा मिथ्या नहीं हो सकता था । और वह इस मौत का लाइव टेलीकास्ट देखना चाहता था । जो बकौल चंडूलिका साक्षी अलफ़ थी । और टल भी सकती थी । हालांकि डायन ने अपने सभी पत्ते नहीं खोले थे । पर वह बेचारी भी नहीं जानती थी कि नीलेश महान योगियों के शक्तिपुंज से एक चेन द्वारा जुङा हुआ है । और वह बहुत कुछ जान गया है ?
जैसे ही हरीश उन जानवरों के समीप पहुँचा । उनका कुछ कुछ आकार उसे समझ आने लगा था । वे चीते के बच्चे समान कोई जानवर थे । और आपस में लङते हुये से मालूम हो रहे थे । उससे कुछ ही अलग चलते हुये गजानन बाबा ने किसी अदृश्य प्रेरणा से हाथ में पत्थर का टुकङा उठा लिया था । और उन जंगली जानवरों को लक्ष्य कर मारने वाला था । उसका इरादा हरीश को बचाने का था ।
चंडूलिका साक्षी इस डैथ ग्राउंड से कुछ ही अलग शान्त खङी थी । पर उसकी आँखों में एक प्यासी खूनी चमक तैर रही थी । चार भयंकर यमदूत पहाङियों पर आ चुके थे । और वे अंतिम क्षणों के लिये तैयार थे । जिसमें अब कुछ ही देर थी ।
गजानन बाबा के हाथ से फ़ेंका गया पत्थर सनसनाता हुआ एक बिल्लोरी जानवर की ओर लपका । बस इसी का डायन को इंतजार था । पत्थर लगते ही जानवर मानों अपमान से तिलमिलाया हो । उसने बैचेनी से अपने शरीर को इधर उधर घुमाया । ठीक उसी क्षण चंडूलिका ने अपनी उंगली जानवर की ओर सीधी कर दी । वह पारदर्शी आकृति वाला जानवर सशरीर हरीश के जिस्म में समाकर एकाकार हो गया । हरीश मानों एकदम से लङखङाया हो । और फ़िर झटके से सीधा हुआ । अब उसकी आँखों में वही बिल्लोरी जानवर जैसी तेज चमक नजर आ रही थी ।
गजानन बाबा के छक्के छूट गये । वह वापस बचाओ बचाओ चिल्लाता हुआ मंदिर की तरफ़ भागा ।
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अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्� � तस्माद्युध्यस्व । चंडूलिका साक्षी की गम्भीर महीन आवाज गूँजी - यह देह तो मरणशील है । लेकिन इस शरीर में बैठने वाला आत्मा अमर है । इस आत्मा का न तो अन्त है । और न ही इसका दूसरा कोई मेल है । इसलिये मौत से मत भाग गजानन । और उससे युद्ध कर । मौत से भागकर तू कहाँ जायेगा । मौत तेरे सिर पर नाच रही है । तेरा अन्त आ गया ।
तभी दूसरा बिल्लोरी जानवर उछलकर लपका । और दूसरे ही क्षण वह गजानन बाबा के शरीर में समा गया । बाबा ने भागना बन्द कर दिया । और सधे सख्त कदमों से पलटकर हरीश की ओर बङा ।
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भाग..हरीश.. भाग ! अचानक सचेत होकर नीलेश चिल्लाया - भाग हरीश । जितना तेज भाग सके । यहाँ से दूर भाग ।
मगर हरीश ने मानों सुना तक नहीं । और वह किसी मल्ल योद्धा की भांति गजानन बाबा से भिङ गया । और दोनों एक दूसरे का गला दबाने लगे । यहाँ तक कि दोनों की जीभें बाहर निकल आयीं । मगर गले पर उनकी पकङ कम नहीं हुयी ।
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प्फ़ावर ! नीलेश को डायन की आवाज सुनाई दी - अँधेरा ..कायम रहेगा ।
नीलेश एक क्षण में ही मौत के कानून की इस धारा को समझ गया । अब वह पीताम्बर एण्ड कंपनी के यहाँ तक आने और गजानन बाबा से जुङने तक की कहानी के एक एक पहलू को समझ गया ।
उसे याद आया । हिमालयी क्षेत्र में स्वर्ग सीङी के नजदीक भी ऐसा ही स्थान है । जहाँ पूर्वजन्म के संस्कारों से एकत्र हुये लोग स्वतः प्रेरित होकर एक दूसरे का गला दबाने लगते हैं । वास्तव में मौत के इस ओटोमैटिक सिस्टम के चलते वे दोनों शिकार खुद ही एक जगह पर आ गये । और मौत का खेल शुरू हो गया ।
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हे योगी ! चंडूलिका बोली - अशोच्यानन्वशोचस्� �्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः । जिनके लिये शोक नहीं करना चाहिये । उनके लिये तुम शोक कर रहे हो । और बोल तुम बुद्धिमानों की तरह रहे हो । ज्ञानी लोग न उनके लिये शोक करते है । जो चले गये । और न ही उनके लिये जो हैं ।
और अब अंतिम खेल शुरू हो चुका था ।
डायन ने उसे डन का अंगूठा दिखाया ।
मगर उसकी तरफ़ से एकदम बेपरवाह नीलेश ने खुद को एकाग्र किया । और बुदबुदाया - ..लख अलख . लख ..अलख..
इसके साथ ही बह अपनी मध्य उंगली को अंगूठे से इस तरह से बारबार छिटकने लगा । मानों उसमें कोई गन्दी चीज लगी हो ।
तुरन्त ही वह बिल्लोरी जानवर इस शक्तिशाली प्रयोग से भयभीत हुआ हरीश के शरीर से निकलकर डायन में समा गया । डायन गुस्से में भयंकर रूप से दहाङी ।
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भाग हरीश ! अबकी बार नीलेश गला फ़ाङकर चिल्लाया - मौत से बचना चाहता है । तो भाग । जितना तेज भाग सकता है । उतना तेज भाग । और मंदिर भी मत जाना । यहाँ से दूर भाग जा । सुबह ही मंदिर लौटना । तब मैं देखूँगा ।
हरीश पर यकायक मानों नशा सा उतरा हो । उसने बिलकुल बिलम्ब नहीं किया । और तेजी से भागने लगा । नीलेश के शब्द उसका पीछा कर रहे थे - भाग हरीश । जल्दी भाग । और जल्दी । मौत तेरे पीछे है ।
गजानन बाबा जमीन पर गिर पङा था । और निचेष्ट सा हो गया था । चारों यमदूत उसके करीब आ गये थे । और उसके प्राणों को समेटकर बाहर ला रहे थे । प्राणीनामा संयुक्त होते ही बाबा का शरीर दो बार हल्के से हिला । और दम निकलते ही वह बेदम हो गया ।
यमदूतों ने चंडूलिका साक्षी को प्रणाम किया । और बाबा के जीव को लेकर हवा में 200 फ़ुट ऊँचा उठे । इसके बाद एक उज्जवल चमक सी कुछ क्षणों के लिये नजर आयी । और फ़िर वे उत्तर दिशा में यमपुरी हेतु रवाना हो गये ।
कसमसाती हुयी चंडूलिका साक्षी ने नीलेश को गुस्से से घूरा । और फ़िर डन का अंगूठा दिखाती हुयी बोली - छोङूँगी नहीं ..- प्फ़ावर ! जैसे ही नीलेश ने पलटकर उसकी तरफ़ देखा । डायन अंगूठा दिखाती हुयी बोली - अँधेरा ..कायम रहेगा ।
इसके बाद वह अदृश्य हो गयी ।
नीलेश ने एक सिगरेट सुलगायी । और टहलता हुआ सा मंदिर की तरफ़ जाने लगा ।
दूसरे दिन सुबह नीलेश उन लोगों के उठने से पहले ही गायब था । दरअसल वह वनखण्डी मंदिर को रात में ही नहीं गया था । अचानक कुछ ध्यान में आते ही वह उस दिशा में बङने लगा था । जिधर हरीश भागा था । वह बेहद सावधानी से उसे तलाशता हुआ जा रहा था । पर उसे हरीश कहीं नजर नहीं आया । तब वह उसकी तलाश छोङकर वनखण्डी मंदिर से पाँच किमी दूर एक अन्य मंदिर में जा पहुँचा । उस समय रात के चार बजने में कुछ ही मिनट कम थे ।
मंदिर का पुजारी और एक बाई गहरी नींद में सोये हुये थे । नीलेश की आहट से बूढा पुजारी स्वयँ ही उठ गया । वह नीलेश को एक अच्छे योगी और उच्च खानदान के सपूत के तौर पर बखूबी जानता था । उसे नीलेश को इस समय अचानक देखकर कुछ आश्चर्य सा हुआ ।
नीलेश ने उसे बता दिया । वह सुबह टहलते हुये इस तरफ़ चला आया । और पुजारी द्वारा खाली किये दीवान पर लेटते हुये उसने आँखे मूँद ली
मौत का यूँ साक्षात खेल उसके जीवन में पहली बार घटा था ।
कोई एक घन्टा बाद जब पुजारी ने हाथ में चाय लिये उसे झकझोरते हुये जगाया । तब वह गहरी नींद के आगोश में जा चुका था । तुलसी के पत्तों और तेज अदरक की साधुई चाय ने उसके सुस्त बदन में एक नयी स्फ़ूर्ति पैदा की । और वह फ़िर से चैतन्य होने लगा ।
कोई सवा पाँच बजे तक नीलेश वहीं मौजूद रहा । इसके बाद मंदिर में खङी एक युवा महन्त की बाइक उठाकर वह पीछे के रास्ते वनखण्डी पहुँचा । इसके बाद सबकी निगाह बचाता हुआ वह एक पेङ के सहारे दो मंजिल पर पहुँचा । और वहाँ से आसानी से तिमंजिला स्थिति अपने कमरे में आ गया ।
अब उसे नीचे का जायजा लेना था । उसने खिङकी से उस डैथ ग्राउंड का भी जायजा लिया । जहाँ गजानन बाबा देह मुक्त हुआ था । पर अभी वहाँ कोई हलचल नहीं थी । उस तरफ़ लोगों का आना जाना नौ दस बजे के लगभग ही शुरू होता था ।
तभी बदरी बाबा चाय लेकर उसके कमरे में आया । नीलेश उससे यूँ ही हालचाल लेने के अन्दाज में बात पूछने लगा ।
बदरी बाबा ने बताया । वे चारों लोग पीताम्बर एण्ड कंपनी अपनी गाङी से जा चुके हैं । और सब ठीक ही है । उसे समझ में नहीं आया कि अचानक नीलेश इस तरह क्यों पूछ रहा है ।
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नहीं । नीलेश ने बात संभाली - गजानन बाबा डायन बाधा उपचार के लिये उनके साथ जाने वाले थे । ऐसा पीताम्बर बोल रहा था । वे साथ गये या नहीं ?
बदरी बाबा बेहद उपहासी अंदाज में हँसा - गजानन बाबा चरसी चिलम के नशे में क्या बोल जाये । खुद उसे पता नहीं । वो भला क्या उपचार करेगा । सुबह मैंने उन लोगों को सब समझा दिया । दूसरे गजानन मुँह अंधेरे से ही खुद गायब है । कहीं दिशा मैदान ( शौच ) को लम्बा निकल गया ।
दूसरे वो पीताम्बर का छोरा हरीश जाने को व्याकुल था । इसलिये वो लोग फ़िर चले गये । वे तुमसे भी मिलने आये थे । पर तुम भी यहाँ नहीं थे । मैंने कह दिया । सुबह हमारी तरह ( साधु ) के लोग अक्सर इधर उधर शौच दातुन आदि को निकल जाते हैं । साधुओं की किसी बात का कोई ठिकाना नहीं होता । कब कहाँ हों ।
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और दूसरे साधु ? नीलेश ने प्रश्न किया ।
बदरी को एक बार फ़िर आश्चर्य हुआ । पर वह नीलेश का बेहद सम्मान करता था । अतः बोला - वे अभी उठे भी नहीं हैं । लगता है । चिलम ज्यादा चङा ली । क्या पता । उठने ही वाले होंगे ।
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बाबाजी ! अचानक नीलेश ने अजीव सा प्रश्न किया - आप कभी जेल गये हो ?
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नहीं तो ! बदरी उछलकर बोला - क्या ..क्या ?
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अगर ! नीलेश बेहद गम्भीरता से बोला - आगे भी नहीं जाना चाहते । तो तुरन्त बिना सवाल किये मेरे साथ चलो ।
ठीक दस मिनट बाद -
उसी बाइक पर नीलेश गजानन बाबा और बदरी बैठे हुये तेजी से जंगल की तरफ़ जा रहे थे । नीलेश का लक्ष्य वहाँ से सात किमी दूर बहने वाली विशाल नहर थी ।
वास्तव में नीलेश का बदरी को यूँ खामखाह परेशान करने का कोई इरादा नहीं था । पर इसके अलावा कोई दूसरा चारा भी उसे नजर नहीं आ रहा था । अगर नहर तक का ये रास्ता कार का रास्ता होता । तो वह बदरी को इस दिल दहलाऊ कांड की खबर तक नहीं होने देता । पर यहाँ बाइक ही मुश्किल से जा सकती थी । अतः बदरी को साथ लेना । इस घटना का राजदार बनाना उसकी मजबूरी थी ।

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