हरेक
इंसान की जिन्दगी इतनी खुशनसीब
नहीं होती कि वह एक अच्छे संपन्न
घर कुल खानदान में पैदा हो ।
पढाई लिखाई करके प्रतिष्ठित
इंसान बने । प्यारी सी बीबी
और दुलारे से बच्चे हों । और
जिन्दगी को हँसी खुशी भोगता
हुआ परलोक रवाना हो जाय ।
पर
क्यों नहीं होती ऐसी जिन्दगी
? क्यों
हैं जीवन के अलग अलग विभिन्न
रंग । कोई सुखी । कोई दुखी ।
कोई हताश । कोई निराश क्यों
है ?
यह
प्रश्न ठीक गौतम बुद्ध स्टायल
में नीलेश के मन में उठा ।
पर
इसका कोई जबाब उसके पास दूर
दूर तक नहीं था । नीलेश की तुलना
मैंने गौतम बुद्ध से इसलिये
की । क्योंकि चाँदी की थाली
और सोने की चम्मच में पहला
निवाला खाने वाला नीलेश एक
बेहद सम्पन्न घराने का स्वस्थ
सुन्दर होनहार युवा था । जीवन
के दुखों कष्टों से उसका दूर
दूर तक वास्ता न था । जिस चीज
पर बालापन से ही उसकी नजर
उत्सुकतावश भी गयी । वो चीज
तुरन्त उसको हाजिर की जाती
थी । आज की तारीख में ढाई तीन
लाख रुपया महज जिसका पाकेट
मनी ही था । महँगी महँगी गाङिया
वह सिर्फ़ ट्रायल बतौर खरीदता
था । और बहुतों को रिजेक्ट भी
कर देता था ।
वह नीलेश ! नीलेश द ग्रेट ! जब अपने जीवन में इस प्रश्न से परेशान हुआ । तो महज 10 वीं क्लास में था ।
और राजकुमार सरीखा ये बच्चा अनगिनत दोस्तों से सिर्फ़ इसीलिये घिरा रहता था कि उसकी छोटी सी जेव से रुपया कागज की तरह उङता था । लङकियाँ तो उसकी हर अदा की दीवानी थी ।
पर ढेरों दोस्तों से घिरे नीलेश को उस कालेज में दो ही लोग आकर्षित करते थे । दादा प्रसून और मानसी ।
उससे दो क्लास आगे प्रसून नाम का वो लङका । अक्सर उसे किसी पेङ की ऊँची टहनी पर बैठा हुआ नजर आता।
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