Monday, September 24, 2018

डायन



हरेक इंसान की जिन्दगी इतनी खुशनसीब नहीं होती कि वह एक अच्छे संपन्न घर कुल खानदान में पैदा हो । पढाई लिखाई करके प्रतिष्ठित इंसान बने । प्यारी सी बीबी और दुलारे से बच्चे हों । और जिन्दगी को हँसी खुशी भोगता हुआ परलोक रवाना हो जाय ।
पर क्यों नहीं होती ऐसी जिन्दगी ? क्यों हैं जीवन के अलग अलग विभिन्न रंग । कोई सुखी । कोई दुखी । कोई हताश । कोई निराश क्यों है ? यह प्रश्न ठीक गौतम बुद्ध स्टायल में नीलेश के मन में उठा ।
पर इसका कोई जबाब उसके पास दूर दूर तक नहीं था । नीलेश की तुलना मैंने गौतम बुद्ध से इसलिये की । क्योंकि चाँदी की थाली और सोने की चम्मच में पहला निवाला खाने वाला नीलेश एक बेहद सम्पन्न घराने का स्वस्थ सुन्दर होनहार युवा था । जीवन के दुखों कष्टों से उसका दूर दूर तक वास्ता न था । जिस चीज पर बालापन से ही उसकी नजर उत्सुकतावश भी गयी । वो चीज तुरन्त उसको हाजिर की जाती थी । आज की तारीख में ढाई तीन लाख रुपया महज जिसका पाकेट मनी ही था । महँगी महँगी गाङिया वह सिर्फ़ ट्रायल बतौर खरीदता था । और बहुतों को रिजेक्ट भी कर देता था ।
वह नीलेश ! नीलेश द ग्रेट ! जब अपने जीवन में इस प्रश्न से परेशान हुआ । तो महज 10 वीं क्लास में था ।
और राजकुमार सरीखा ये बच्चा अनगिनत दोस्तों से सिर्फ़ इसीलिये घिरा रहता था कि उसकी छोटी सी जेव से रुपया कागज की तरह उङता था । लङकियाँ तो उसकी हर अदा की दीवानी थी ।
पर ढेरों दोस्तों से घिरे नीलेश को उस कालेज में दो ही लोग आकर्षित करते थे । दादा प्रसून और मानसी ।
उससे दो क्लास आगे प्रसून नाम का वो लङका । अक्सर उसे किसी पेङ की ऊँची टहनी पर बैठा हुआ नजर आता।
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