फ़िर भी ! वह बोला - उसमें मासूम मौलश्री की क्या गलती थी । परिस्थितियों ने जैसा खेल उसके साथ खेला । वह बनती चली गयी । गलती तो उन लोगों की है । जिन्होंने इस नासमझ को पतन के गर्त में झोंक दिया ।
- गलती है । वह जहरीले स्वर में बोली - इसकी बराबर गलती है । चलो जब ये मजबूर थी । नासमझ थी । बेबस थी । माना इसकी गलती नहीं थी । मगर बाद में तो ये अपना रुख बदल सकती थी । संसार में ऐसे भी जीव ( इंसान ) हैं । जो नदियों का रुख बदल देते हैं । पहाङों का सीना चीरकर रास्ता बना देते हैं । हवा को अपना रुख बदलने पर मजबूर कर देते हैं । धरती में लात मारकर पानी की धारा निकाल देते हैं । जो किस्मत का लिखा दुर्भाग्य मेंटकर सौभाग्य में बदल देते हैं । स्वर्ण अक्षरों में जिनका इतिहास लिखा जाता है । और आप कह रहे हो । इसकी क्या गलती थी ।
- मगर इसको ! वह जिद भरे स्वर में बोला - वैसा कोई प्रेरक नहीं मिला ।
- हे योगी ! तुम व्यर्थ की जिद कर रहे हो । ऐसा कभी नहीं होता । दुनियाँ में हर चीज के दोनों ही पक्ष मौजूद है । एक सही पक्ष । और दूसरा गलत पक्ष । एक पाप । और एक पुण्य । यहाँ दयालु हैं । तो क्रूर भी हैं । यहाँ लुटेरे हैं । तो दानी भी हैं । हर बारह घन्टे बाद दिन ( सुख ) होता है । तो उसके तुरन्त बाद रात ( दुख ) भी आती है । फ़िर उस बारह घन्टे की रात के बाद फ़िर से दिन आता है । इस तरह दोनों पक्षों का आना जाना लगा रहता है । अतः एक से दिन कभी नहीं रहते । इंसान को ऐसे ही क्षणों ( दुख के ) में संयम और धैर्य से कार्य लेना चाहिये । यह जिस समय भी चाहती । अपना जीवन सुधार सकती थी । किस्मत की धारा मोङ सकती थी । पर इसने ऐसा किया क्या । इसको बराबर प्रेरक मिले । बचाने वाले मिले । सबको ही मिलते हैं । पर इसने बचना ही नहीं चाहा । और आप कह रहे हो । इसकी क्या गलती थी । तब इसने डायन बनना ही बनना था ।
मैं यह कह रहा हूँ । नीलेश ने मानों व्यर्थ का मूर्खतापूर्ण प्रश्न जानबूझ कर किया - मान लो । इसके परिवार को न मारा जाता । तो इसकी माँ वहाँ से इसे लेकर न भागती । मन्दिर की शरण न लेती । तब शायद इसका जीवन आज कुछ और ही होता ।
- कोई न काहू सुख दुख कर दाता । चंडूलिका साक्षी शून्य 0 में देखती हुयी बोली - निज करि कर्म भोग सब भ्राता । योगी । ये संसार विलक्षण है । विचित्र है । इन शब्दों पर ध्यान दो । विलक्षण और विचित्र । विलक्षण मतलव जिसके लक्षण न जाने जा सकें । विचित्र मतलव जिसका कोई एक निश्चित चित्र दृश्य स्पष्ट न बनता हो । यहाँ जो आज घटित होता है । उसकी रूपरेखा हजारों वर्ष पूर्व गुजरे जन्मों में ही लिख गयी होती है । कर्म संकलन के निचोङ से जो फ़ल बनता है । वो कई जन्मों बाद घटित होता है । यह दैव है ।
लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि इस पर कोई नियंत्रण नहीं हो सकता । जीव ( सिर्फ़ इंसान ) जिस क्षण से चाहे । अपने कर्मों की गति मोङ सकता है । पापी पुण्यात्मा बनना शुरू हो सकता है । और धर्मात्मा किसी भी क्षण से पापी बनना शुरू हो सकता है । आज ये 85 वर्ष की डायन को जीवन में कितना ही समय और कितने ही अवसर आये होंगे । जब यह अपने कर्मों की धारा विपरीत मोङ सकती थी । पर इसने ऐसा किया क्या ? और आप कह रहे हो । इसकी क्या गलती थी ।
- मैं एक बात और भी बताती हूँ । इसके साथ जो हुआ था । उसके फ़लस्वरूप इंसानी दुनियाँ के लिये इसके मन में जहर ही जहर भरा हुआ है । इसने कई दूध पीते बच्चों को मारा है । कामभोग के द्वारा आवेशित कर इसने कामी पुरुषों का सार ( जीवन सत्व । इसे वीर्य न समझें । यह अलग और चेतना से सम्बन्धित होता है । इसमें चेतना निर्बल होती है ) निचोङा है । यह लोगों को अपने से भयभीत हुआ देख आनन्दित महसूस करती थी । तब इसकी प्रतिशोध भावना को अपार सुख होता था ।
ठीक है । नीलेश हार सी मानता हुआ बोला - मगर अब ?
- क्या अब ?
- मतलब अब इसका परिणाम क्या होगा ?
- अब इसका अन्त समय आ गया है । वैसे अभी इस माध्यम शरीर से कुछ और भी कार्य लिया जाता । पर बाहरी हस्तक्षेप ( नीलेश के ) से यह नियम के प्रतिकूल हो गया । अतः इसका शेष कार्य दूसरे माध्यम शरीरों से होगा । अब ये एक सीखी हुयी परिपक्व अनुभवी डायन बन चुकी है । आज रात को इसका देह अन्त हो जायेगा । अब ये हमारी साथिनी हो जायेगी । इसका ये चोला ( शरीर ) उतर जायेगा । और इसको सूक्ष्म गणों वाला शरीर दे दिया जायेगा । तब ये विधिवत डायन हो जायेगी । और उसके द्वारा होने वाले विभिन्न डायनी कार्य करेगी ।
कहकर चंडूलिका साक्षी ने नेत्र बन्द कर लिये । और अंतरिक्ष में संदेश भेजा ।
- जैसे ? नीलेश उसके आँखे खोलते ही फ़िर बोला ।
सबसे पहले तो ये अपने बदले ही चुकायेगी । इसको सताने वाली जीव आत्मायें जहाँ जहाँ जिस भी रूप पशु पक्षी या इंसान रूप में जन्म लेंगे । ये उनको बहुविधि त्रास देगी । और नियम में आ गया । तो मृत्यु उन्मुख भी करेगी । ये उन घरों में रहने वाली नीच कुटिल प्रवृतियों वाली बूङी या जवान औरतों के द्वारा कटु वचन बोलेगी । अवैध सम्बन्धों को प्रेरित करेगी । इससे आवेशित औरत अक्सर रोकर किसी दुखियारी के समान दीन हीन और जले कटे वचन बोलेगी । जबकि उसके उस दुख का कोई उचित कारण न होगा । तब बारबार ये छाती पीटेगी । और कलेजे को चीर देने वाले वचन बोलेगी । इसकी बददुआयें नीच स्वभाव की होंगी । इस तरह ये लोगों की जानकारी में आये बिना ( कि यह इस औरत का कार्य नहीं बल्कि इस पर आवेशित डायन का कार्य है ) बहुत समय तक उनको दहलाती रहेगी । फ़िर बहुत समय में लोग सच को जानेगें । तब तक यह तवाही सी फ़ैला चुकी होगी ।
- मगर कैसे ? नीलेश फ़िर मूर्खों की भांति बोला - मगर कैसे ?
- नहीं बताती । अचानक वह मादक अंगङाई लेकर बोली - आधा ही सही वादा निभा ।
नीलेश को यकायक इस बदली परिस्थिति में कुछ समझ न आया । सर्वत्र - उसके दिमाग में गूँजा । तो उसने जलवा को ही आगे कर दिया । साक्षी मुक्त भाव से उससे लिपट गयी । उसने जलवा को इस तरह अपने बाहुपाश में जकङ लिया । जैसे किसी शेरनी ने बकरे को दबोच लिया हो । उसके प्यासे थरथराते होंठ जलवा के होठों पर टिक गये । इस काम किलोल में जव वह घूमी । तो उसके विशाल दूधिया नितम्ब नीलेश की आँखों के सामने आ गये । एक क्षण के लिये उसकी आँखे ही बन्द हो गयीं । और फ़िर वह परे देखने लगा । वास्तव में प्रसून की मेहरवानी से शून्यवत हुये जलवा को इस सबका कोई बोध न था ।
दस मिनट बाद साक्षी ने आनन्दमय सिसकियाँ लेते हुये जलवा को मुक्त किया । उसके चेहरे पर गहन संतुष्टि की आभा मौजूद थी ।
मगर कैसे ? माहौल सामान्य होते ही वह फ़िर बोला - मगर कैसे ?
- हे योगी ! वह प्रसन्नता से छलछलाते स्वर में बोली - नीच आत्माओं के आवेश का एक ही मुख्य गणित है । आवेशित होने का एक ही मुख्य कारण है । विभिन्न अतृप्त इच्छाओं वासनाओं से मजबूर होकर किसी भी जीव का सनातन धर्म से अलग हो जाना । जैसे कोई भी औरत धन । स्वर्ण आभूषण । कामवासना की तृप्ति न होना । संतान का न होना । दूसरों से डाह जलन रखना । चुगलखोरी जैसे कृत्यों में सुख मिलना । दूसरे का बुरा चेतना ( बुरा होने की इच्छा करना ) आदि चेष्टाओं के वशीभूत हो जाती है । तब उस पर उसके संस्कारों अनुसार कम या ज्यादा अनुपात में डायन आवेश करती है ।
ऐसी माध्यम औरत मौलश्री जैसी बूङी भी हो सकती है । और मुझ जैसी युवती भी । अब इसकी पहचान भी सुनो । बद दुआयें उसकी जीभ पर रखी होती हैं - इसका सत्यानाश हो । इसका वंश ही मिट जाये । इसकी औलाद मर जायें । यह निपूती हो । यह रांड हो जाये । इसका आदमी मर जाये । इसकी चिता जले । इसको पानी देने वाला भी न मिले । हे भगवान ! मैं पेट पर हाथ फ़िराती हुयी दुआ देती हूँ । तभी मेरी छाती ठंडी होगी । आदि आदि वाक्य जहरीले अंदाज में बोलती है । जहर तो मानों हमारी वाणी पर विराजमान होता है । नेत्रों में विराजमान होता है । ऐसे अनुभव प्रायः ही बारबार किसी औरत के साथ किसी के अनुभव में आते हों । वह डायन आवेश वाली ही होती है । यधपि कभी कभी वाली ( उचित कारण होने पर ) के लिये ऐसा नहीं कह सकते ।
खैर ! वह हथियार डालता हुआ बोला - डायन के अलावा ये किसी और सदगति को प्राप्त नहीं हो सकती ।
- नहीं ! साक्षी दो टूक स्वर में बोली - एक प्रतिशत यदि कोई संभावना बनती भी है । तो वो कम से कम तुम्हारे पास नहीं है । उसके लिये यहाँ अद्वैत के संत का होना आवश्यक है ।
- यदि अद्वैत के सन्त यहाँ होते । वह खोखले स्वर में बोला - तब क्या होता ?
- वैसे ये असंभव ही है । अद्वैत संत बङे पुण्यों के बाद मिलते हैं । अतः इस जैसी पापी आत्मा को उनके दर्शन नहीं हो सकते । फ़िर भी इस अपरम्पार रहस्यमय सृष्टि में सब कुछ होते देखा गया है । भले ही उसका प्रतिशत नगण्य सा ही रहा हो । इसलिये अद्वैत के सन्त यदि यहाँ होते । तो हम लोग यहाँ से चले जाते । उनका दर्शन करते हुये जब यह प्राण त्यागती । तो फ़िर यातनामय तरीके के बजाय साधारण तरीके से ले जायी जाती । और तब ये डायन न बनकर घोर नरक में डाल दी जाती । जो डायन बन जाने से फ़िर भी लाख गुना अच्छा है । नरक से मुक्त होने के बाद इसको काफ़ी समय तक 84 भोगनी होती । तब जाकर मृत्यु के समय सन्त दर्शन के फ़ल से इसका किसी अच्छे कुल खानदान में सुलक्षणा कन्या के रूप में जन्म होता । और तब यह भक्ति को विशेष रूप से प्रवृत होती । फ़िर इसको उसी दर्शन के फ़ल से आत्मा का ग्यान देने वाले सन्त से भेंटा होता । और तब यह शाश्वत सत्य को जानती अनुभव करती हुयी मोक्ष मार्ग पर कृमशः यात्रा करती । अब और क्या जानना चाहते हो । सो कहो ।
नीलेश के माथे से पसीना छलछलाने लगा । उसने आपस में ही अपनी हथेलियों को मसला । और बोला - तब फ़िर मेरा क्या मतलब हुआ । इस सब में मेरी भूमिका क्या रही ? मैं किस बात का निमित्त रहा ?
सोचो ! वह मोहक मुस्कान के साथ बोली - सिद्धों योगियों के प्रयोगात्मक अनुभव फ़िर किस तरह होंगे ? फ़िर आप कैसे जानते कि सच वाकई में क्या है । नये बने चिकित्सक को चिकित्सा विग्यान की प्रायोगिक अनुभूतियों हेतु क्या जीवों को अलग से अस्वस्थ किया जायेगा ? नहीं । बल्कि जो अपने कर्मों के फ़लस्वरूप स्वभाव के फ़लस्वरूप अनुचित आहार विहार से अस्वस्थ वृतियों को जगाते हैं । और फ़लस्वरूप रुग्ण दशा को प्राप्त होते हैं । चिकित्सक उन्हीं के शरीर पर प्रयोग करते हैं । और अनुभव प्राप्त करते हैं । इसी उदाहरण से समस्त क्षेत्र के नियमों को समझो ।
- हे योगी ! इस तरह सृष्टि का कृम भी अनवरत जारी रहता है । और संसार रूपी इस पाठशाला से योग्य व्यक्तित्व निकलकर विभिन्न उपाधियों को प्राप्त कर सुख भोग करते हैं ।
वह एक एक बात सच कह रही थी । नीलेश को लगा । मानों उसके सभी पत्ते पिट चुके हों । और वह हारे हुये जुआरी की तरह उत्साहहीन हो गया हो । तभी चंडूलिका साक्षी ने नेत्र बन्द किये । और अंतरिक्ष में संदेश भेजा । जलवा यह सब हैरत से देख रहा था । पर उसका दिमाग उस समय भी शून्यवत हो गया था ।
यमदूत आ चुके थे । उन्होंने साक्षी को नमस्कार किया । साक्षी ने मौलश्री का शरीर छोङ दिया । और अलग हो गयी । इसके साथ ही बूङी मौलश्री का शरीर नजर आने लगा । जलवा को अब न तो साक्षी ही दिख रही थी । और न ही यमदूत । बस नीलेश ही उन्हें देख पा रहा था ।
...अचानक मानों । मौलश्री सोते से जागी । एक पूरे जीवन के बाद सोते से जागी । उसमें एक अंतिम चेतना पैदा हुयी । जिसने उसके शरीर को नई शक्ति सी प्रदान की । उसके सभी बृह्माण्डी बन्द खुल गये । और उसके पापी जीवन की रील उसके समक्ष घूमने लगी । यमदूत तेजी से उसके जीव को समेटने में लगे हुये थे ।......
तभी नीलेश के कानों में साक्षी की मधुर झंकारयुक्त वाणी गूँजी -
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही । जैसे कोई व्यक्ति पुराने कपड़े उतार कर नये कपड़े पहनता है । वैसे ही इस नश्वर शरीर को धारण की हुई आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर प्राप्त करती है । हे योगी ! न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा
भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे । यह न कभी पैदा होती है । और न कभी मरती है । यह तो अजन्मा । अंतहीन । शाश्वत और अमर है । सदा से है । शरीर के मरने पर भी इसका अन्त नहीं होता ।
......तभी बूङी मौलश्री गला फ़ाङकर रोयी - धीरू बेटा.. धीरू ।.. कहाँ है. तू ।.. मेरा अन्त समय.. आ गया ।.. मेरी बहू को.. बुला ।.. धीरज.. मुझे बचा ।.. बेटा धीरू.. मुझे इन.. जमों से बचा ।.. बेटा मेरे.. लाल !.. अपनी माँ के पास.. क्यों नहीं आता ।.. मैं हमेशा के लिये.. जा रही हूँ । बेटा..एक बार ..एक बार ..मेरे पास आ..तो..मेरे प्राण..सुख से..निकल..सकें..मुझे.. बचा..बेटा...मेरे..ला..� �..धी..रू..पा...नी...पा..न� �...पा..नी ।
नीलेश ने तुरन्त पानी लेकर उसके मुँह में डाला । उसने मिचीमिची आँखों से नीलेश को देखा । और बङी कठिनता से उसका हाथ थामकर बोली - मे..रा..धी..रू..बे..टा.... ...
साक्षी फ़िर से बोली - य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते
। जो इसे मारने वाला जानता है । या फिर जो इसे मरा मानता है । वह दोनों ही नहीं जानते । यह न मारती है । और न मरती है । हे योगी ! अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्� � तस्माद्युध्यस्व । यह देह तो मरणशील है । लेकिन शरीर में बैठने वाला आत्मा अन्तहीन है । इस आत्मा का न तो अन्त है । और न ही इसका कोई मेल है ।
तब नीलेश ने वह हौलनाक नजारा देखा । जो उसने जीवन में पहली बार देखा । आठ दस छोटे छोटे बच्चे । कुछ आदमी । कुछ औरत । कुछ 84 के जीव पशु पक्षी आदि जो इस जिन्दा डायन के शिकार बने थे । एक बङे वृताकार रूप में मौलश्री के इर्द गिर्द घूमने लगे । रोना भूलकर भयभीत मौलश्री आँखे खोलकर उन्हें पथरायी आँखों से देखने लगी ।....
चंडूलिका साक्षी के चेहरे पर गहरी संतुष्टि के भाव आये । उसके मुँह से मानों संगीत का झरना बहा -
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्ति� �्धीरस्तत्र न मुह्यति । आत्मा जैसे - देह के बाल, युवा या बूढे होने पर भी वैसी ही रहती है । उसी प्रकार देह का अन्त होने पर भी वैसी ही रहती है । बुद्धिमान लोग कभी इस पर व्यथित नहीं होते । अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम । तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि । हे योगी ! अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती । और बार बार मरती भी मानो । तब भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ।
.....तब उसके योनिद्वार से बहुत सा मूत्र बाहर आया । और मलद्वार से मल भी । उसने छाती पर हाथ रख लिया । और निष्प्राण सी हुयी झुकती हुयी लेट गयी । उसने दो बार मुँह को इस तरह सिकोङा । मानों सूखे हलक में थूक को गटक रही हो
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